________________ पराधीनता का दुःख क्यों हो ?' परिग्रह रहित संयमी चाहे निर्जन वन में रहे, चाहे भवन में, चाहे सुख में रहे, चाहे दु:ख में, उसको कहीं भी प्रतिबद्धता नहीं है, वह सब जगह सम्बन्ध रहित निर्मोही रहता है। विषयों में आसक्ति को संग कहते हैं। वह भी दोष है, क्योंकि इससे प्रबल भोगेच्छा जाग्रत होती है। भोगाभ्यास से विषय राग दृढतर होता है तथा इन्द्रियों में भोगपाटव की वृद्धि होती है। प्राणीपीड़न के बिना भोग सम्भव नहीं होता और प्राणिपीड़न हिंसा है। अत: योगसाधक के लिए शास्त्रीय विषय भी यथासंभव परित्याज्य है। यही अपरिग्रह है। शास्त्रोक्त विपरीत द्रव्य के ग्रहण में तो स्पष्ट ही दोष है, विषयों के ग्रहण में भी पूर्वोक्त दोष होते हैं। आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि से सर्वपरिग्रह का त्याग करना ही महाव्रत है। उपकरण के बहाने से किसी भी बाह्य परिग्रह- वस्त्र, भिक्षापात्र आदि भी उपकरण की सीमा में नहीं आते। उन्होंने लिखा है - श्रीमज्जिनेन्द्र भगवान् के परम आगम में समस्त परिग्रहों के त्याग को ही महाव्रत कहा है। जो कोई इससे अन्यथा कहता है वह अधम है और अपना तथा पर का घात करने वाला है। साधुता परिग्रह के त्याग में ही सुशोभित होती है और परिग्रहों में एक शरीर को छोड़ जितने भी पदार्थ हैं वे सभी बाहिरी परिग्रह हैं। जो परिग्रह को रखते हैं या अनुमोदना करते हैं वे स्वयं मोक्षमार्ग से भ्रष्ट होते हैं और दूसरों को भी निष्परिग्रहता से शिथिल करते हैं। अत: वे स्व-पर के घातक हैं। आचार्य शुभचन्द्र का स्पष्ट मन्तव्य है कि 'जिस मुनि का चित्त परिग्रह रूपी पिशाच से अनेक प्रकार से पीडित है, उसका चित्त ध्यान करते समय कदापि स्वप्न में भी स्थिर नहीं रह सकता। परिग्रह महाव्रत की सिद्धि के साधक को प्रथम ही आशा को छोड़कर निराशता का अवलम्बन करना होता है। कारण कि आशा के बने रहने से परिग्रह तो कभी भी संगृहीत हो सकता है। मनुष्यों के जैसे-जैसे शरीर तथा धन में आशा बढ़ती है, वैसे-वैसे उनके मोहकर्म की गाँठ दृढ़ होती जाती है। इस आशा को रोका नहीं जाए तो यह निरन्तर लोक पर्यन्त फैलती है और उससे इसका मूल दृढ़ होता जाता है। तब इसका नाश हो पाना अशक्य हो जाता है। इसलिए इसको प्रारम्भ में ही रोकना श्रेष्ठ है। विषयाशा की व्यर्थताको निदर्शित करते हुए आचार्य शुभचन्द्र की ही तरह आचार्य 1. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 116. 2. ज्ञानार्णव, 16/8. 3. ज्ञानार्णव, 16/23-4. 4. वही, 34. 5. वही, 35. 110