________________ (घर), क्षेत्र (खेत), धन, धान्य, दिपद (मनुष्य), चतुष्पद (पशु, हाथी, घोड़े), शयनासन, यान, कुप्य और भाण्ड के भेद से दश प्रकार का है।' अन्तरंग परिग्रह के चौदह अवान्तर भेदों के नाम इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पुंवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ अथवा अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, संज्वलनकषाय। दोनों प्रकार के परिग्रह के त्याग का निर्देश करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं - 'कदाचित् अन्तरंग के परिग्रह में कोई परिग्रह विद्यमान रहे तो फिर उन्हें आत्मदृष्टा योगियों की संगति करनी चाहिए। क्योंकि मुनि को समस्त संघ का त्यागकर ध्यानस्थ रहने को कहा है। यदि ध्यानस्थ नहीं रहा जाए तो आत्मध्यानी योगीश्वरों की संगति में रहना चाहिए। परिग्रह के दोष और अपरिग्रह से लाभ - परिग्रह के दोषों का वर्णन करते हुए आचार्य श्री शुभचन्द्र ने लिखा है - जिस प्रकार नाव में पाषाण आदि का बोझ बढ़ने से गुणवान अर्थात् रस्सी से बँधी हुई भी नाव समुद्र में डूब जाती है उसी प्रकार संयमी मुनि यदि गुणवान है तो भी परिग्रह के भार से संसार रूपी सागर में डूब जाता है। परिग्रह से काम (वाँछा) होता है और काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप, पाप से नरकगति होती है। उस नरकगति में वचनों के अगोचर अतिद:ख होता है। इस प्रकार द:ख का मूल परिग्रह है। सूत्र सिद्धान्त में परिग्रह ही समस्त अनर्थों का मूल माना गया है। क्योंकि जिसके होने से रागादिक शत्रु न हो तो भी क्षणमात्र में उत्पन्न हो जाते हैं। परिग्रह से मोहित मुनि के रागादिक का जीतना सत्य, क्षमा, शौच और तृष्णा रहितपना आदि गुण नष्ट हो जाते हैं। यह मनुष्य परिग्रहों से पीड़ित होकर विषयरूपी सों से काटा जाता है। कामरूपी * वाणों से बेधा जाता है। स्त्रीरूपी शिकारी से रोका जाता है अर्थात् बांधा जाता है। अणुमात्र (थोड़ा सा) परिग्रह रखने से मोह कर्म की गाँठ दृढ़ होती है और इससे तृष्णा की ऐसी वृद्धि हो जाती है कि उसकी शान्ति के लिए समस्त लोक के राज्य से भी पूरा नहीं पड़ता। जब तक हृदय में सन्तोषवृत्ति का उदय नहीं होता, तब तक यह दुष्पूर्य तृष्णा एवं आसक्ति समाप्त नहीं होती। नि:संगता का महत्त्व - जो मुनि परिग्रह रूपी कर्दम से निकल गया हो वही निराशता का अवलंबन कर सकता है और उस निराशता के होने पर वही मुनि परतन्त्रता स्वरूप दुःखों से कदापि घेरा व दबाया नहीं जाता / ठीक ही है, आशारहित होने पर 1. धवला, पु. 12 पृ. 282. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 7/17. .. 3. ज्ञानार्णव, 1/14. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 111 आदि। 4. ज्ञानर्णव, 16/3. 109