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________________ हैं। जिसने गुरुकुल - गुरुसमूह की उपासना नहीं की, उसका विज्ञान प्रशंसा करने योग्य नहीं है। किन्तु वह मयूर के नृत्य के समान निन्दनीय है।'' नीतिकारों का भी यही कहना है - ___ संदिग्धं हि परिज्ञानं गुरुप्रत्ययवर्जितम्। अर्थात् जिस ज्ञान के उपार्जन में गुरुजन का विश्वास उपलब्ध नहीं हुआ वह परिमाण में अधिक होने पर भी समीचीनता के विषय में सन्देहास्पद ही रहता है। इससे वृद्ध समागम की उपोदयता सिद्ध ही है। अपरिग्रह महाव्रत - ___ परिग्रह का शाब्दिक एवं निरुक्ति अर्थ - परिग्रह शब्द में दो शब्द हैं - परि और ग्रह, परि उपसर्ग है और ग्रह ग्रहण करने के अर्थ में आने वाली धातु है। जो चारों ओर से ग्रहण करे, चारों ओर से बाँध दे उसका नाम परिग्रह है। परिगृह्यत इति परिग्रह: बाह्यार्थ: क्षेत्रादिः परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः __बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणाम: / '3 अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है। इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहे जाते हैं। अथवा उन बाह्य पदार्थों के कारणभूत परिणाम भी परिग्रह में परिगणित होते हैं। साधु का सब प्रकार के अन्तरंग एवं बाह्य परिग्रह से मुक्त होना अपरिग्रह महाव्रत है। अपरिग्रह का शाब्दिक अर्थ है अपने पास कुछ न रखना या किसी भी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं जताना अथवा अपनी आवश्यकतानुसार ही वस्तु को रखना और अन्य अनावश्यक तृण भी परिग्रह है। आचार्य उमास्वामी ने परिग्रह का लक्षण करते हुए कहा है - मूर्छा परिग्रहः' अर्थात् पर पदार्थों में ममत्व भाव रखना ही परिग्रह है। इसी लक्षण को लगभग समस्त आचार्यों एवं विचारकों ने बिना किसी विवाद के स्वीकार भी किया है।' परिग्रह के भेद - बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से परिग्रह दो प्रकार का है। बाह्य परिग्रह चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार का है, जबकि अन्तरंग परिग्रह केवल चेतन रूप है। क्योंकि वे सब आत्मा के विकारी परिणाम हैं। बहिरंग परिग्रह के वास्तु 1. ज्ञानार्णव, 15/2-3. 2. वही, 15/4. 3. राजवार्तिक सूत्र, सर्वाथसिद्धि टीका 4. तत्त्वार्था सूत्र 7/17 5. ज्ञानार्णव 15/29 का उद्धरण 1. - - 108
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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