________________ संयम का परिपालन करते हैं। जो आत्म-पर स्वरूप के ज्ञाता होने से संसार, शरीर एवं भोगों की ओर से विरक्त रहते हैं, तथा जो दृढ़तापूर्वक तप एवं ध्यान में लीन रहते हैं, उन महात्माओं को यहाँ वृद्ध पद से ग्रहण करना चाहिए। कारण कि ऐसे महापुरुष ही आत्महित के साथ परहित के सम्पादन में भी समर्थ होते हैं। इसके विपरीत जो अवस्था में वृद्ध होते हैं वे पर का कल्याण तो कर ही नहीं सकते, किन्तु साथ ही वे आत्महित के साधन में भी असमर्थ हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि उस समय उनका शरीर शिथिल हो जाता है, इन्द्रियाँ अपना कार्य नहीं करती हैं तथा स्मृति क्षीण और विचारशक्ति नष्ट हो जाती है।'' 'जो पुरुष वृद्धसेवा का आश्रय लेते हैं उनकी कषायरुप अग्नि रागादि सहित शान्त हो जाती है, मन प्रसन्न वा निर्मल हो जाता है।' आगे वृद्ध सेवा की प्रेरणा करते हुए आचार्य कहते हैं - 'कि हे दुर्बुद्धि आत्मन् ! गुरुजनों की साक्षीपूर्वक अर्थात् गुरुजनों के निकट रहकर तू अपने वैराग्य को तो निर्मल कर और संसार, देह, भोगों से लेश मात्र भी राग मत कर तथा चित्तरूपी दैत्य जो कि स्वेच्छा से प्रवर्तता है, उसे वश में कर और उत्कृष्ट बुद्धि को अंगीकार कर, क्योंकि ये गुण गुरुजनों की सेवा करने से ही प्राप्त होते हैं। ___ 'वृद्ध' शब्द के अर्थावधारण में आचार्य शुभचन्द्र की अपनी ही अवधारणा प्रतीत होती है, जो परम्परा से हटकर नए व विकसित अर्थ की ओर प्रवृत्त हुई है / वे कहते हैं - 'जो मुनि तप, शास्त्राध्ययन, धैर्य, ध्यान, विवेक, यम तथा संयमादि से वृद्ध हुये हैं वे ही वृद्ध होते हैं। केवल अवस्था मात्र अधिक होने से व केश (बाल) सफेद होने से ही वृद्ध नहीं होते।' वृद्धसेवा का फल बतलाते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने अनेक कार्यों की सिद्धि उससे मानी है। वे कहते हैं - 'वृद्धों की सेवा करने वाले पुरुषों के ही चारित्र आदि सम्पदा होती है। क्रोधादि कषायों से मलिन मन निर्मल हो जाता है। जिनकी आत्मा सत्समागमरूप अमृत के प्रवाह से निरन्तर आर्द्र की गई है, उन मनुष्यों की विषय-तृष्णा भोगों के सुलभ होने पर भी शान्त हो जाती है। जिस मनुष्य की आत्मा सत्संगति से उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञान से अनुरंजित है वह कातरता को छोड़कर स्वयं धैर्य का ही आश्रय लेता है। योगीश्वरों की सत्संगति में रहने से आत्मानुभव की प्राप्ति और कर्मों का नाश होता है। संसारी मुनि योगीश्वरों के महापवित्र आचरण के अनुष्ठान को देखकर वा सुनकर उन योगीश्वरों की सेवित पदवी में सरलता से प्रवृत्त हो जाता है।' 'जीवों को समस्त विद्याओं में चतुरता, विनय में अतिप्रवीणता तथा अपने सिद्धान्त में भावों की शुद्धि अर्थात् नि:सन्देहता आदि गुण सत्पुरुषों की सत्संगति से ही प्राप्त होते 1. वही, पृ. 40. 3. बारहवखर-कक्क, 205. 2. ज्ञानार्णव, 14/43. 4. ज्ञानार्णव, 15/1. 107