________________ इसी तरह किये हैं - 'कामदेव रूप शत्रु ज्ञानियों की संगति, तप और ध्यान से भी नहीं जीता जाता है। वह केवल शरीर और आत्मा के भेदज्ञान से उत्पन्न हुए वैराग्य के ही प्रभाव से जीता जाता है। इसी तरह अन्यत्र भी इस प्रकार के उपदेशों को देखा जा सकता है। यथा - मन के द्वारा ब्रह्मचर्य के विपरीत बातों का सोचना, जिसमें किसी नारी का चिन्तन करना, उससे सम्बन्धित घटनाओं का याद करना। इस प्रकार का चिन्तन व स्मरण करने का त्याग करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। वाणी को ब्रह्मचर्य के अनुरूप प्रयोग में लाना वाचिक ब्रह्मचर्य है। तात्पर्य यह है कि स्त्रियों से सम्बन्धित चर्चा नहीं करनी चाहिए। आमोद, प्रमोद, रहन-सहन रूपादि भावों के त्याग से ब्रह्मचर्य का पालन होता है। ब्रह्मचर्यव्रत के पालन की निर्भरता शरीर पर भी है। मन या वाणी से किसी प्रकार की भूल या उच्छंखलता हो जाने पर शरीर में प्रवृत्ति न होने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। इस व्रत की सुरक्षा के लिए आचार्य शुभचन्द्र का उपदेश तो इतना भी है कि - 'ब्रह्मचर्यव्रत को निर्मल रखने के लिए केवल स्त्रियों के ही संसर्ग का परित्याग करना आवश्यक नहीं है, बल्कि कामकला का आलम्बन करने वाले दुराचारियों के भी संसर्ग का परित्याग करना आवश्यक है।'2 इस सन्दर्भ में आचार्य महाचन्द मुनि का यह मत विशेष उल्लेखनीय है - 'जिस तरह नदी के निकट रहे हुए वृक्ष का समय आने पर विनाश होता है, वैसे तपस्वियों का तप स्त्री-संग से नाश होता है।' ब्रह्मचर्य की साधना के लिए वृद्ध सेवा की अनिवार्यता का प्रतिपादन आचार्य शुभचन्द्र का अपना विशिष्ट प्रमेय है। इसे उन्होंने जितना परिपुष्ट और पल्लवित किया है वह अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं अपितु अलभ्य भी है। उनके कतिपय सन्दर्भो का निदर्शन कराना उचित होगा। यथा - __'दोनों लोकों की सिद्धि, परिणामों की निर्मलता तथा ज्ञान एवं विनय की वृद्धि के लिए वस्तुत: वृद्धजनों की सेवा की ही प्रशंसा की जाती है। वृद्धजनों से अभिप्राय यहाँ उन वृद्धों का नहीं है जो केवल आयु से अधिक होते हैं, किन्तु जो आगम मे पारंगत होकर 2. अष्टांगयोगरहस्य, पृ. 39. 1. सागारधर्मामृत, 6/32. 3. वही, पृ. 39. 106