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________________ परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है।' अथवा अनुभूत स्त्री का स्मरण न करने से, स्त्री विषयक कथा के सुनने का त्याग करने से और स्त्री के सटकर सोने और बैठने का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है। अथवा स्वतन्त्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना भी ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप - जिस व्रत का आलम्बन करके योगीगण परब्रह्म परमात्मा को जानते हैं अर्थात् उसे अनुभवते हैं और जिसको धीर-वीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं, किन्तु सामान्य पुरुष धारण नहीं कर सकते, वह ब्रह्मचर्य नामक महाव्रत है। इन तीनों लोकों में ब्रह्मचर्य नाम का व्रत ही प्रशंसा करने योग्य है, क्योंकि जिन पुरुषों ने इस व्रत की निर्मलता निरतिचारता पूर्वक प्राप्त की है, वे पूज्य पुरुषों के द्वारा पूजे जाते हैं।' आचार्य शुभचन्द्र ने ब्रह्मचर्यव्रत के प्रतिपक्षी मैथुन के दस प्रकारों का उल्लेख किया है, वे निम्न हैं - 1. शरीरसंस्कार, 2. पुष्टरस का सेवन, 3. गीत-वादित्र-नृत्य का देखना, 4. स्त्रीसंसर्ग करना, 5. स्त्री में किसी प्रकार संकल्प व विचार करना, 6. स्त्री अंग देखना, 7. स्त्री का सत्कार करना, 8. पूर्व में अनुभव किये गए सम्भोग का स्मरण करना, 9. आगे पाने की चिन्ता और 10. वीर्यक्षरण। __योगभाष्यविवृत्ति में भी महर्षि दक्षमुनि ने अष्टमैथुनराहित्य को ब्रह्मचर्य का लक्षण कहा है। उनके अनुसार मैथुन के आठ भेद निम्न हैं - 1. स्मरण, 2. कीर्तन, 3. केलि, 4. प्रेक्षण, 5. गुप्तभाषण, 6. संकल्प, 7. अध्यवसाय और 8. क्रियानिवृत्ति। ब्रह्मचर्य पालन के उपाय - आचार्य शुभचन्द्र ने इन कामभोगों की निसारता को निदर्शित करते हुए विस्तार के साथ इनके परित्याग का उपदेश अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव में दिया है। वे कहते हैं - ... 'जो सज्जन कामभोगों से विरक्त होकर ब्रह्म की उपासना करते हैं। उन्हें अपने परिणामों को निर्मल रखने के लिए इन दस दोषों का परित्याग करना चाहिए।' _ 'काम रूप अग्नि निश्चय से प्राणियों के हृदय में जलती है / परन्तु वह पीछे निर्दयतापूर्वक उनके अंग एवं उपांगों को जला डालती है। अभिप्राय यह है कि हृदय में कामवासना के उत्पन्न होने पर प्राणियों का सारा शरीर पीड़ित होता है। पं. आशाधर ने इस दर्निवार कामरोग के संयमन का विचार करते हए कतिपय उक्तियाँ प्रस्तुत की हैं, जिनमें उसके लिए उचित परामर्श एवं उपाय भी निरूपित 1. बारसाणुवेक्खा , 80. 2. सर्वार्थसिद्धि, 9/6/413. 3. ज्ञानार्णव, 11/3. 4. ज्ञानार्णव, 11/7-9. 5.योगभाष्यविवृत्ति, 6. ज्ञानार्णव, 11/11. 7. वही, 11/15. 105
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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