________________ बुद्धिमानों को परधन ग्रहण करने की इच्छा तो स्वप्न में भी दूर है किन्तु दन्त धोने, को तृण भी बिना दिया हुआ ग्रहण नहीं करना चाहिए। जो धर्म रुपी वृक्ष को विषयविरति रूप जड़ से स्थिर, संयम रूप ऊँची शाखाओं से विस्तृत महाव्रत रूप पत्तों से एवं कषायोपशम रूप पुष्पों से सुशोभित ज्ञान की लीलारूप फलों से संयुक्त और पण्डित जन रूप पक्षियों से सेवित है उसे मुनि भी यहाँ चोरी रूप तीव्र अग्नि के द्वारा जला डालता है।' महर्षि व्यास ने भी अशास्त्रीय विधि से दूसरों के धन के स्वीकरण को स्तेय तथा उसके विरुद्ध स्तेय में स्पृहा के अभाव को अस्तेय कहा है। इन्द्रिय से परद्रव्याप-हरण तो दूर की बात है, मन से भी अन्यायपूर्वक परद्रव्य स्वीकरण के इच्छाराहित्य को अस्तेय कहते हैं। अत: निज स्वरहित वस्तु के ग्रहण एवं उसके ग्रहणस्पृहा के परित्याग की चेष्टा ही अस्तेय का साधन है। इस विषय में श्रुति भी दृष्टव्य है - मा गृदः कस्यचिद्धनम् / ' ब्रह्मचर्य महाव्रत - ब्रह्मचर्य यम का चतुर्थ अंग है। ब्रह्म का अर्थ आत्मा और चर्य का अर्थ रमण करना अर्थात् स्त्री आदि बाह्य वस्तुओं से उपयोग को हटाकर आत्मा का आत्मा में ही रमण करना (लीन होना) वास्तविक ब्रह्मचर्य है। इसका पालन शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी बहुत आवश्यक है। शारीरिक दृष्टि से इसलिए कि इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होने से बल का हास नहीं हो पाता। ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने वाले जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है। अथवा मन, वाणी एवं कर्म दारा सब अवस्थाओं में सर्वत्र, समस्त प्राणियों में मैथुन का परित्याग ब्रह्मचर्य कहलाता है। बाह्याभ्यन्तर ब्रह्मचर्य - अध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्य को सर्वप्रधान माना जाता है। निश्चय से देखने पर क्रोधादि निग्रह का भी इसी में अन्तर्भाव हो जाने से इसके जो उत्तर भेद अठारह हजार हैं वे भी सम्मिलित हैं। परन्तु स्त्री के त्याग रूप ब्रह्मचर्य की भी लोक व परमार्थ दोनों क्षेत्रों में बहुत महत्ता है। वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत रूप से भी ग्रहण किया जाता है और महाव्रत रूप से भी। जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सारे सुन्दर अंगों को देखकर भी उनमें राग रूप बुरे 1. ज्ञानार्णव, 10/20. 3. ईशावास्योपनिषद् 2. 5. योगसार संग्रह, 63. 2. पातंजलयोगसूत्र, पृ. 62. 4. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, 12/2. 104