________________ करता है। इससे विपरीत एक वचन ऐसा भी होता है जो हृदय में तीर-जैसा चुभ जाता है और तलवार, छुरी और बंदूक की गोली के आघात से भी अधिक पीड़ा पहुँचाता है। अत: मनुष्यों को चाहिए कि वह वचन का ठीक-ठीक व्यवहार करे। अस्तेय महाव्रत - 'स्तिन् स्तेये' धातु से भावार्थक यत् प्रत्यय और न का लोप होने से स्तेय शब्द निष्पन्न होता है, इसका अर्थ चोरी अथवा तस्करता है। स्तेयाभाव को अस्तेय कहते हैं। अत: अस्तेय का अर्थ है चोरी अथवा बलात्कारपूर्वक किसी के द्रव्य को ग्रहण न करना।' अस्तेय के विपरीत स्तेय है। अर्थात् बिना दिये परवस्तु को ललचाकर ग्रहण करना अदत्तादान या चोरी है। चोरी में दूसरों की धनादि वस्तुओं को चुराकर हड़प जाने की तीव्र लालसा रहा करती है। इससे व्यक्ति का नैतिक पतन तो होता ही है साथ में जिसकी चीज चुराई जाती है, उसे भी कष्ट पहुँचता है। इसलिए यह भी हिंसा का एक अंग है। धन-सम्पत्ति को लोक में मनुष्य का बाहिरी प्राण कहा जाता है। इसे प्राप्त करने में मनुष्य दिन-रात परिश्रम करते हुए शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के कष्ट सहन करते हैं। अपने कमाये हुए धन को प्राणों से भी प्यारा समझते हुए उसे सुरक्षित रखने का भी प्रयत्न करते हैं। एक पैसा भी खो जाए या सुई-जैसी वस्तु का भी पता न चले तो उनके प्राण व्याकुल हो जाते हैं। फिर भला अधिक कीमती वस्तुओं को उसकी बिना मर्जी या आज्ञा के चुरा लेने में किसे दुःख न होगा ? अपनी किसी वस्तु के दूसरों द्वारा चुरा लिये जाने पर उसके कष्ट का अनुभव आसानी से हो सकता है। इसके सिवाय बिना दिए पर वस्तु को चुराते समय अन्तरात्मा में भी भय एवं आकुलता का अनुभव होता है। इसलिए स्व-पर कष्टप्रद होने के कारण चोरी हिंसा का ही अंग है।2।। संसारी जीवों के जिस प्रकार जीवन के कारणभूत इन्द्रिय, श्वासोच्छवासादि * अन्त:प्राण हैं, उसी प्रकार धन, धान्य, सम्पदा, बैल, घोड़ा, दासी, दास, मन्दिर, पृथ्वी आदिक जितने पदार्थ पाए जाते हैं, वे सब उनके जीवन के कारणभूत बाह्य प्राण हैं। इसलिए उनमें से एक भी पदार्थ का वियोग होने से जीवों को प्राणघात सदृश दुःख होता है, इसी से कहते हैं कि चोरी साक्षात् हिंसा है। भाई, माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्रादि कोई भी चोर का संसर्ग क्षणभर के लिए नहीं चाहते अथवा चोर का कोई सगा नहीं होता। इस लोक में चोर के संसर्ग से महापुरुष लघुता को प्राप्त हुए। गुणी पुरुष खंडित किये गए और मुनिगण भी मारे गए। अत: आचार्य कहते हैं कि 'हे आत्मन् ! नदी, पर्वत, ग्राम, वन तथा घर में रखे हुए, गिरे हुए, नष्ट हुए पर धन को मन, वचन, काय से ग्रहण करना छोड़ दे। 4. 1. योगसारसंग्रह, पृ. 62. 2. ज्ञानार्णव, 10/3. 3. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 103. 4. ज्ञानार्णव, 10/9, 13, 16. 103