________________ पर किसी भी परिस्थिति में हिंसा का समर्थन नहीं किया गया हो। धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा स्व-पर के लिए महान् अनर्थकारी है। जिन मतों में धर्म को आश्रय बनाकर पूजा, यज्ञ, शान्तिकर्म देवता आदि के निमित्त से प्राणी वध होता है या उसका अनुमोदन किया जाता है वह सब कुमत है और उसका उपदेश करने वाला गुरु कुगुरु और शास्त्र कुशास्त्र है। सम्पूर्ण योग साधना का मूल अहिंसा ही है। योगशास्त्रीय व्यास भाष्य की टीका में महर्षि व्यास ने भी प्राणी वर्ग पर सर्वदा अनभिद्रोह को अहिंसा कहा है। यह भी स्मरणीय है कि केवल वध न करना ही अहिंसा नहीं है, अपितु समस्त प्राणियों के प्रति मन, वचन, काय से मैत्री, करुणा आदि सदभावों का पोषण भी अहिंसा के अन्तर्गत है। मन, वाणी एवं शरीर क्रमश: अनिष्ट चिन्तन, परुषभाषण तथा ताड़न आदि से किसी प्राणी को पीड़ा पहुँचाना हिंसा है। अत: इससे विपरीत आचरण अर्थात् मन, वचन और कर्म दारा सर्वदा और सर्वथा प्राणीमात्र के प्रति द्रोह त्याग करना योगसम्मत है। इसीलिए भगवान् व्यास ने समस्त प्राणीवर्ग का अनभिद्रोह कहकर अहिंसा की व्याख्या की है। सत्य महाव्रत - जो बात जैसी है उसे वैसी ही कह देना सत्य तथा अन्यथा कहना असत्य है, ऐसा लोक में सत्य और असत्य का लक्षण प्रचलित है। किन्तु सत्य और असत्य की परिभाषा तात्त्विक दृष्टि से बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। इस दृष्टि से असत् अभिप्राय पूर्वक वचन कहना, चाहे वह ज्यों-की-त्यों बात को ही प्रकट क्यों न करता हो, असत्य हैं और सदभिप्राय पूर्वक वचन का व्यवहार करना सत्य है। जैसा कि ज्ञानार्णवकार ने लिखा है - 'जिनेन्द्र भगवान् ने यम-नियमादि व्रतों का समूह कहा है वह एक मात्र अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए ही कहा है। क्योंकि अहिंसाव्रत यदि असत्य वचन से दूषित हो तो वह उत्कृष्ट पद को प्राप्त नहीं होता अर्थात् असत्य वचन के होने से अहिंसा व्रत पूर्ण नहीं होता। जो वचन जीवों का इष्ट (हित) करने वाला हो, वह असत्य हो तो भी सत्य है और जो वचन पापसहित हिंसा रूप कार्य को पुष्ट करता हो, वह सत्य हो तो भी असत्य और निन्दनीय है।' नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने सत्य महाव्रत का लक्षण इस प्रकार निरूपित किया है - 'जो साधु राग से देष से अथवा मोह से होने वाले मृषा भाषा के परिणाम को छोड़ता है उसी के सदा दसरा सत्य महाव्रत होता है।'5 1. योगशास्त्र, (व्यासभाष्य) 2/30. 2. पातंजलयोगसूत्र का विवेचनात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 126. 3. जैनधर्म विश्वधर्म, पृ. 42. 4. ज्ञानार्णव, 9/2-3. . 5. नियमसार, गाथा 57. 101