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________________ जो मांस भक्षण करते हैं। अन्य प्राणीघात में प्रयत्नशील रहते हैं। वे भयानक रौरवादि नरकों में प्रविष्ट हो पीड़ा अनुभवन करते हैं। जो मनुष्य रोगादि की शान्ति, देवपूजा, यज्ञसिद्धि के लिए प्राणीघात करते हैं वह इस कारण शीघ्र ही नरक में जाते हैं। हिंसा नरकादि रूप दुर्गति का दार है। वह पाप का समुद्र और भयानक नरक का गाढा-अन्धकार है। सुख के निमित्त से की गई हिंसा दुःख को, मंगल के निमित्त से की गई हिंसा अमंगल को, जीवित इच्छा के निमित्त से की गई हिंसा मरण को देती है। जो मूढ अधम धर्मबुद्धि से जीवों को मारता है सो वह पाषाण की शिलाओं पर बैठकर समुद्र को तैरने की इच्छा करता है। जिस शास्त्र में हिंसा का पोषण है और जिस आचरण में हिंसा का संसर्ग है उसं आचरण से भी क्या लाभ है ? कुछ नहीं। उसके संसर्ग से दुर्गति प्राप्त होती है। सर्व प्राणियों पर दया भाव को प्रगट करने वाला एक अक्षर श्रेष्ठ है, परन्तु विषयकषायी पुरुष व्दारा रचित इन्द्रियपोषक पापरूप कुशास्त्र श्रेष्ठ नहीं है।' इस हिंसा - निषेध के प्रसंग में देव, धर्म, गुरु और शास्त्र को निमित्त बनाकर की जाने वाली हिंसा का ज्ञानार्णवकार द्वारा जो बार-बार निषेध किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य शुभचन्द्र देव के समय धर्म के नाम पर हिंसा का बोलबाला था। शान्तिकर्म, यज्ञकर्म आदि में हिंसा के निषेध से वैदिक काल में होने वाली पशुहिंसा का निषेध समझना चाहिये। जैन धर्म के अनुसार किसी भी हालात में हिंसा उपादेय नहीं हो सकती भले ही हम अपने जीवन में पूर्ण अहिंसक न बन पाए फिर भी धर्म का लक्षण तो पूर्ण अहिंसा ही है। अहिंसा की पूर्णता को बड़े-बड़े तीर्थंकर जैसे महायोगी श्रमण मुनि ही प्राप्त कर पाते हैं। फिर भी हमें अपनी स्थिति और सामर्थ्य के अनुसार अहिंसा का पालन करना चाहिए। यह सब ही शास्त्रों में और सब ही मतों में सुना जाता है कि धर्म का लक्षण अहिंसा है और इसके विपरीत प्राणियों का घात किया जाना पाप है। उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट है कि आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में वही धर्म, गुरु और शास्त्र समीचीन है जिसमें अहिंसा को ही धर्म का श्रेष्ठ लक्षण माना है और कहीं 1. ज्ञानार्णव, 12 से 242, वही 26 2. स्वयंभूस्तोत्र पद्य 119 3. वही 8 अध्याय 30 पद्य 100
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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