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________________ कि लोक में समझा जाता है। इसका व्यापार बाहर व भीतर दोनों ओर होता है। बाहर में किसी भी छोटे या बड़े जीव को अपने मन, वचन या काय से किसी प्रकार की भी हीन कम या अधिक पीड़ा न पहुँचाना तथा उसका दिल न दुखाना अहिंसा है, और अन्तरंग में रागद्वेष परिणामों से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थित होना अहिंसा है।' बाह्य अहिंसा को व्यवहार अहिंसा और अन्तरंग अहिंसा को निश्चय अहिंसा कहते हैं। वास्तव में अन्तरंग में आंशिक साम्यता आए बिना अहिंसा सम्भव नहीं है और इस प्रकार इसके अतिव्यापक रूप में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं। इसीलिए अहिंसा को परमधर्म कहा जाता है। जल, थल आदि में पूर्ण अहिंसा पलनी असम्भव है, पर यदि अन्तरंग में साम्य और बाहर में पूरा-पूरा यत्नाचार रखने में प्रमाद न किया जाए तो बाह्य जीवों के मरने पर भी साधक अहिंसक ही रहता है। आचार्य शुभचन्द्र ने अहिंसा महाव्रत का वर्णन करते हुए लिखा है - जिस व्रत में वचन, मन और शरीर से स्वप्न में भी त्रस-स्थावर प्राणियों का घात प्रवृत्त नहीं होता वह प्रथम अहिंसा व्रत कहा गया है। जो प्राणी समूह के विषय में प्रमादयुक्त होते हैं, उनके रक्षण में असावधान होते हैं उनसे प्राणघात हो अथवा न हो तब भी कर्मबन्ध अवश्य ही होता है। किन्तु जिनकी आत्मा अहिंसा से संवृत्त है, जो प्राणी रक्षण में सदा सावधान है उनके कर्मबन्ध नहीं होता। अत: प्रमाद को छोड़कर परिणामों की निर्मलता पूर्वक संयम और कषायों को उपशमित करने के लिए समस्त प्राणियों के समूह को बन्धु की बुद्धि से अर्थात् मित्रता के भाव से देखना चाहिए। आगे हिंसा की हेयता व अहिंसा की उपादेयता का विस्तृत वर्णन करते हुये लिखा है - . "हिंसा, नरकरूप घर में प्रविष्ट होने के लिए उन्नत गोपूर - द्वार है। जिस प्रकार नगर या प्रासाद में प्रविष्ट होने के लिए उसका प्रधान दार ही कारण है। उसी प्रकार नरकों में भीतर प्रवेश पाने के लिए मुख्य कारण हिंसा है। उत्तमक्षमादि की वृद्धि से प्राप्त धर्म को हिंसा क्षणभर में नष्ट कर देती है। क्षणभर के लिए प्राणी घात का विचार किया जाता है उससे तप संयमादि सब नष्ट हो जाते हैं। विषय-कषाय से पीड़ित पाखण्डी हिंसा का उपदेश देने वाले शास्त्र रचकर जीवों को भयानक नरकादि में ले जाते हैं, यह अनर्थ है। है। 1. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 44. 2. उपासकाध्ययन, 781. 3. प्रवचनसार, 3/17. 4. ज्ञानार्णव, 7, 8, 10
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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