________________ महाभारत में भी योग के आठ ही अंग बतलाये गए हैं - वेदेषु चाष्टगुणिनं योगमाहुर्मनीषिणः / ' इसी का अनुकरण लिंगपुराण में भी हुआ है - साधनान्यष्टधा चास्य। आचार्य शुभचन्द्र ने अष्टांग योग के महत्त्व पर प्रकाश डालते हए लिखा है, कि जिस मुनि ने उक्त यमादिकों का अभ्यास कर लिया है, वह परिग्रह से रहित होकर निर्ममत्व होता हुआ रागादि क्लेशों से रहित हुए मन को अपने आधीन कर लेता है। श्रेष्ठ आचार्यों ने योग के जिन आठ अंगों का उल्लेख किया है वे मन की प्रसन्नता के द्वारा मुक्ति के कारण होते हैं। विविध संक्लेश संकुल संसार से निवृत्ति के लिए क्रमश: अन्तर्मुख होने का सुगम साधनमार्ग अष्टांग योग है, जिसमें अन्य किसी साधना की अपेक्षा न होने से यमों का सर्वप्रथम स्थान है। इसी प्रकार क्रमानुसार उत्तरोत्तर आसन, प्राणायाम आदि स्वपूर्ववर्ती नियम, आसनजयादि कारण सापेक्ष है। यमों को अपने पूर्व अष्टांग योग में से किसी के भी अनुष्ठान की अपेक्षा नहीं होती है। इन यमों के नाम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं। इन्हीं अहिंसादिक का अनुष्ठान जब सार्वभौम अर्थात् सबके साथ सब जगह और सब काल में समान भाव से किया जाता है तब ये महाव्रत हो जाते हैं।. . ___ आचार्य समन्तभद्र स्वामी एवं सोमदेवसूरि ने भी जीवनपर्यन्त धारण किए जाने वाले व्रतों को यम एवं सावधिक - सीमित काल पर्यन्त धारण किए जाने वाले व्रतों को नियम कहा है। यम रूप महाव्रतों का लक्षण मूलाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में निम्न प्रकार निर्दिष्ट किया है - हिंसादि पाँच पापों का मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों के द्वारा महाव्रत कहा गया है। अहिंसा महाव्रत का स्वरूप - जैनधर्म अहिंसा प्रधान है। परन्तु अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना 1. लिंगपुराण, 1/8/7. 2. शान्ति पर्व, 216/7. 3. ज्ञानार्णव 20/3,4 4. योगसूत्र 2, 30, 31 5. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, 87, उपाकाध्ययनांग 761, दात्रि (यशोविजय) 21-2, 6. मूलाचार 1-4, तत्त्वार्थसूत्र 7-1, रत्नकरण्डक श्रावकाचार 72 98