________________ और ईश्वरप्रणिधान इनको नियम कहा जाता है। इसी प्रकार ज्ञानार्णव में परिग्रह की आशा को हेय बतलाते हुए क्रोधादि कषायों को छोड़ने और राग, द्वेष, मोह व इन्द्रियों पर विजय करने इत्यादि का जो उपदेश दिया गया है वह नियम का ही रूप है। जिसे योगसूत्र में समाधि कहा गया है उसे ही ज्ञानार्णव में शुक्ल ध्यान के नाम से वर्णित किया गया है। इस तरह हम योग के आठों अंगों की प्ररूपणा ज्ञानार्णव में भी पाते हैं। यह और बात है कि ज्ञानार्णव में किसी-किसी अंग को पर्याप्त महत्त्व नहीं मिल पाया है या अपेक्षाकृत उनका विस्तृत विवेचन नहीं हो सका है। यम और नियम का नामोल्लख की अपेक्षा जैन परम्परा में सर्वप्रथम उल्लेख गणधरस्वामीकृत मान्य प्रतिक्रमण पाठ में उपलब्ध होता है। किन्तु इसकी विवेचना के रूप में यह आचार्य वट्टकेर दारा सुलभ होता है। जहाँ वे इसे कालसापेक्ष विभाजित करते हुए कहते हैं - 'सम्यग्ज्ञानादिक रत्नत्रय साध्य हैं और इसके साधन यम और नियम हैं। इस नियम और यम में से यम नामक उपाय आजन्म का है अर्थात् महाव्रतादिक आजन्म धारण करने चाहिए और नियम सामायिक, प्रतिक्रमणादि अल्पकालावधि का है। ये जीव के नियम-यम रूप परिणाम रत्नत्रय प्राप्ति के साधक हैं।' . योगसूत्र के अनुसार योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से विवेकख्याति पर्यन्त ज्ञानदीप्ति होती है। तत्पश्चात् सम्प्रज्ञात समाधि परिपक्व हो जाने पर 'सर्ववृत्तिनिरोध' रूप असम्प्रज्ञात समाधि का आविर्भाव होता है। इनमें से धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अन्तरंग साधन हैं तथा पूर्व के पाँच बहिरंग साधन हैं। इन सबका पृथक् नाम निर्देश इनकी योगसाधना में अनिवार्यता का सूचक है। . योगसूत्र के समाधिपाद में अभ्यास, वैराग्य, श्रद्धा तथा वीर्यादि के सतत् अनुष्ठान से समाधि-सिद्धि बतलाई है, किन्तु उनका अन्तर्भाव इन्हीं आठों अंगों में है। यथा - प्रत्येक योगांग का बारम्बार अनुष्ठान ही अभ्यास है। वैराग्य का नियमान्तर्गत सन्तोष में तथा श्रद्धा आदि का यथायोग्य तप आदि में अन्तर्भाव होता है। पूर्वोक्त परिकर्मों का धारणा, ध्यान और समाधि में अन्तर्भाव है। साधनपाद में वर्णित तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान रूप क्रियायोग का नियमों में सदभाव है। 1. योग सूत्र 2-32 2. जम-णियम-सील-मूलुत्तर-गुणेसु ....| - प्रतिक्रमणपाठ (क्रियाकलाप) पृ.111. 3. णाणादिरयणतियमिह सज्झं तं साधयति जमणियमा। ____ जत्थ जमा सस्सदिया, णियमा णियदप्पपरिमाणा / / - मूलाचार, (प्रक्षिप्त) गाथा 2. 4. योगसूत्र, 2/28. 97