________________ ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवों के और मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन के यथाख्यात चारित्र होता है / यथावस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि को यथाख्यातचारित्र कहते हैं। यह संयम आत्मा की शुद्ध दशा रूप होता है। सम्यक्चारित्र में जिन पाँच महाव्रतों का उल्लेख किया गया है, योगसूत्र में भी उन्हें पाँच महाव्रतों के रूप ही माना है और यही योगाङ्गों में यम नामक प्रथम अङ्ग माना . गया है। अत: यहाँ पर ज्ञानार्णव और योगसूत्र को आधार बनाकर योगाङ्गों का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित हो सकता है। योगाङ्ग - भारतीय योगशास्त्रियों में इस विषय में मतैक्य नहीं है। कितने ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ को योग के अङ्ग मानते हैं। कितने ही आठ अंगों में से यम और नियम को छोड़कर आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन छहों को ही योग के अंग मानते हैं। कतिपय इनसे भिन्न उत्साह, निश्चय, धैर्य, सन्तोष, तत्त्वनिश्चय और देशत्याग इन छह को योग की सिद्धि का हेतु मानते हैं। एक अन्य मत के अनुसार ध्यान के प्रधान चार कारण हैं - गुरुपदेश, श्रद्धान, सदाभ्यास, स्थिरमन। उपर्युक्त विभिन्न मतों के सन्दर्भो का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि आचार्य शुभचन्द्र के सामने योगांगों की अनेक मान्यताएँ एवं उनकी भिन्न-भिन्न संख्याएँ प्रचलित थीं। इसीलिए ज्ञानार्णव में इन मान्यताओं का, किसी का नाम के साथ और किसी का बिना नाम ही, संग्रह हआ है। यह बात भिन्न है कि इनका विवरण क्रमश: या प्रसंगानुसार, दोनों रूपों में वहाँ उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु उसे यत्र-तत्र बिखरी सामग्री से संगृहीत अवश्य किया जा सकता है। ज्ञानार्णव में जिन योगांगों का नामोल्लेख के साथ वर्णन है वे हैं - आसनजय, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण और ध्यान / इनके अलावा समाधि, यम और नियम को नामान्तरों के रूप में देखा जा सकता है। यथा - मोक्ष के मार्गभूत रत्नत्रय का वर्णन करते हुए सम्यक्चारित्र के प्रसंग में अहिंसादि पाँच महाव्रतों की प्ररूपणा सविस्तार हुई है। जिनको कि यम और नियम के रूप में देखा जा सकता है। योगसूत्र के अनुसार योग का प्रथम अंग यम है और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय 1. गोम्मटसार, जीवकाण्ड,गाथा 475. 2. ज्ञानार्णव 20/12 96