________________ सम्पूर्ण पापों का त्याग करना सामायिक चारित्र कहलाता है। यह संयम अनुपम, दुर्लभ और दुर्धर्ष है।' __ छेदोपस्थापनाचारित्र - प्रमाद के निमित्त से सामायिक चारित्र से च्युत होकर जो सावध क्रिया के करने रूप सावध पर्याय होती है, उसका प्रायश्चित्त विधि के अनुसार छेदन करके मुनि अपनी आत्मा को अहिंसादिक पाँच प्रकार के व्रताचरण में स्थापित करता है उसे छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। परिहारविशुद्धिचारित्र - पाँच प्रकार के संयमों में से सामान्य - अभेद रूप से अथवा विशेष - भेद रूप से सर्वपापों का परित्याग करने वाला जो मुनि पाँच समिति, तीन गुप्ति को धारण कर उनसे युक्त रहकर सदा सावध का त्याग करता है उस पुरुष को परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। यहाँ चारित्र और संयम एकार्थवाची हैं। यह चारित्र जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सदा सुखी रहकर पुन: दीक्षा ग्रहण करके जो तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व का अध्ययन करने वाले के होता है। परिहारविशुद्धि संयम को धारण करने वाले मुनि तीन संध्यों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोश गमन करते हैं। रात्रि में गमन नहीं करते। जिस संयम में परिहार के साथ विशुद्धि हो उसको परिहारविशुद्धि संयम कहते हैं। यहाँ परिहार का तात्पर्य प्राणी पीड़ा के परिहार से है। अर्थात् इस संयम वाला मुनि जीवराशि पर विहार करने पर भी उनका विघातक नहीं होता। सूक्ष्मसाम्परायचारित्र - जिन क्रोधादि कषायों द्वारा संसार में परिभ्रमण होता है उनको साम्पराय कहते हैं। जिस चारित्र में सम्पराय अर्थात् कषाय का उदय अतिसूक्ष्म रहता है वह सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है। इसमें लोभकषाय के उदय मात्र का अनुभव रहता है। इस चारित्र को प्राप्त उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी वाले जीव के अणुमात्र लोभ अर्थात् सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त लोभ कषाय का अनुभव होता है। इसके परिणाम यथाख्यातचारित्र वाले जीव के परिणामों से कुछ कम होते है। क्योंकि यह संयम दसवें गुणस्थान में होता है। इसके बाद ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में यथाख्यातचारित्र हो जाता है। यथाख्यातचारित्र - अशुभ रूप मोहनीयकर्म के सर्वथा उपशम हो जाने से 1. गोम्मटसार, जीवकाणड गाथा 470 2. वही, गाथा 471. 3. वही, गाथा 472. 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/18/2 पृ. 616. 5. वही, 9/10/6 पृ. 617. 6. वही, 9/10/8 पृ. 617. 95