________________ द्रव्यों को जानता है और निश्चयनय की दृष्टि से स्व को ही जानता है। ज्ञान ही आत्मा है। ज्ञान के अभाव में जड़त्व की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदिया तथा असंज्ञी जीवों में भी ज्ञान की अल्प मात्रा विद्यमान है ही। किन्तु उनका ज्ञान ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रगाढ़ आवरणों से आच्छादित होने के कारण, निजस्वरूप को नहीं जान पाता है। सुवर्ण, पाषाण एवं बादलों के हटते ही सोना एवं सूर्य का तेज निखर आता है। वैसे ही कर्मों के आवरण उपशम, क्षय, क्षयोपशम एवं बाह्य कारण धर्मश्रवण, एकाग्रता, शुद्ध आहार, एवं धर्म जागरण से मिथ्याज्ञान, सम्यग्ज्ञान में परिणत हो जाता है। मिथ्याज्ञान के कारण ही अनादिकाल से संसार परिभ्रमण हो रहा है। उससे मुक्ति पाने के लिए सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान ही मुख्य साधन है। इन दोनों के बीच में कार्य-कारण का सम्बन्ध है। जो अज्ञानी है वह तो करोड़ों जन्म लेकर तप के प्रभाव से पाप को जीतता है और उसी पाप को अतुल्य पराक्रम वाला भेदविज्ञानी आधे क्षण में ही भस्म कर देता है। इस संसाररूपी उग्र मरुस्थल में दु:ख रूप अग्नि से तप्तायमान जीवों को यह सत्यार्थ ज्ञान ही अमृत रूप जल से तृप्त करने को समर्थ है। संसार के दुःख मिटाने को सम्यग्ज्ञान ही समर्थ है।' यह सम्यग्ज्ञान 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि, 4. मन:पर्यय और 5. केवलज्ञान के भेद से पाँच भेद वाला है। मन और इन्द्रिय की सहायता से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान श्रुतानुसारी है, जिसमें शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भाषित होता है तथा जो मतिज्ञानपूर्वक होता है, अथवा शब्द और अर्थ की पर्यालोचना के अनुसरण पूर्वक इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इन दोनों ज्ञानों का विषय सभी द्रव्य और उनकी कुछ पर्यायों को जानना है। अवधिज्ञान मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए साक्षात् आत्मा के दारा द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की मर्यादा पूर्वक पदार्थों को जानता है। अवधि, मर्यादा, सीमा ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला ज्ञान मन:पर्यय ज्ञान है। इस ज्ञान के होने में इन्द्रिय और मन की सहायता नहीं रहती, किन्तु आत्मा के विशिष्ट क्षयोपशम की आवश्यकता होती है। इसके दो भेद हैं - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान एवं विपुलमति मन:पर्ययज्ञान। केवलज्ञान ज्ञानावरणकर्म के नि:शेष रूप से क्षय हो जाने पर होता है। इसमें भूत, वर्तमान और भविष्यत् त्रैकालिक सब वस्तुएँ समस्त पर्यायों सहित युगपत् जानी जाती हैं। यह ज्ञान परिपूर्ण अव्याघाति, असाधारण, अनन्त, अनन्तकाल तक रहने वाला होता है। आदि के चारों ज्ञान तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से प्रकट होते हैं। जबकि केवलज्ञान की उत्पत्ति केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से होती है। इसलिए प्रथम के चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं और अन्तिम केवलज्ञान क्षायिकज्ञान है। इसीलिए केवलज्ञान को केवल, एक या असहायज्ञान भी कहते हैं। इन पाँचों सम्यग्ज्ञानों की उत्पत्ति का प्रधान कारण स्व-पर भेदविज्ञान है। इसीलिए पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि जिस-जिस प्रकार 1. ज्ञानार्णव, 2/2 2. ज्ञानार्णव, 3/6-9. 3. ज्ञानार्णव, 7/18, 12.