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________________ अनिच्छा पूर्वक कर्म का फल भोगा जाता है इसलिए इसे अकामनिर्जरा कहा गया है। इनमें सकामनिर्जरा को अविपाकनिर्जरा भी कहा जाता है। संयमी मुनि वैराग्य के मार्ग को. प्राप्त होकर जैसे-जैसे तपश्चरण करता है वैसे-वैसे उसके द:ख से जीतने योग्य कठोर कर्म क्षीण होते जाते हैं। यद्यपि कर्म अनादिकाल से जीव के साथ लगे हए हैं तथापि वे ध्यान रूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षीण हो जाते हैं। उनके क्षय हो जाने से जैसे अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी तप से कर्मों का नाशकर शुद्ध हो जाता है।' मोक्षतत्त्व - बन्धन मुक्ति को मोक्ष कहते हैं। बन्ध के कारणों का अभाव होने पर तथा संचित कर्मों की निर्जरा होने से समस्त कर्मों का समूल उच्छेद होना मोक्ष है। आत्मा की वैभाविकी शक्ति का संसार अवस्था में विभाव परिणमन होता है। विभाव परिणमन के निमित्त हट जाने से मोक्ष दशा में उसका स्वाभाविक परिणमन हो जाता है। जो आत्मा के गुण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशा में आ जाते हैं। मिथ्यादर्शन. सम्यग्दर्शन बन जाता है, अज्ञान ज्ञान हो जाता है और अचारित्र चारित्र। इस दशा में आत्मा का सारा नक्शा ही बदल जाता है। जो आत्मा अनादिकाल से मिथ्यादर्शन आदि अशढियों और कलषताओं का पंज बना हआ था, वही निर्मल, निश्चल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है। इसी मोक्ष अवस्था का ग्रन्थकार ने इस भांति वर्णन किया है। वे लिखते हैं - जो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति व अनुभाग रूप समस्त कर्मों के संबंध के सर्वथा नाश रूप लक्षण वाला तथा संसार का प्रतिपक्षी है, वही मोक्ष है। दर्शन और वीर्यादि गुणसहित और संसार के क्लेशों से रहित, चिदानन्दमयी आत्यन्तिक अवस्था को साक्षात् मोक्ष कहते हैं। यह अन्वय प्रधानता से मोक्ष का स्वरूप कहा है। जिसमें अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से अतिक्रान्त) विषयों से अतीत, उपमारहित और स्वाभाविक विच्छेदरहित पारमार्थिक सुख हो, वही मोक्ष कहा जाता है। जिसमें यह आत्मा निर्मल (द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित) शरीररहित, क्षोभरहित, शान्तस्वरूप, निष्पन्न (सिद्धरूप), अत्यन्त अविनाशी, सुखरूप, कृतकृत्य (जिसको कुछ करना शेष नहीं हो ऐसा) तथा समीचीन सम्यग्ज्ञान स्वरूप हो जाता है, उस पद को शिव अर्थात् मोक्ष कहते हैं। सम्यग्ज्ञान - जो ज्ञान वस्तु स्वरूप को न्यूनतारहित तथा अधिकतारहित, विपरीततारहित, जैसा का तैसा, सन्देहरहित जानता है, उसको आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं। ज्ञान आत्मा का निज गुण है तथा स्व-पर प्रकाशक है। व्यवहारनय से आत्मा समस्त 1. ज्ञानार्णव, 6/46-9. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/1. 3. ज्ञानार्णव, 2/2. 4. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 42 . 92
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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