________________ प्रकति का अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार नीम का स्वभाव कडआपन औरगड का स्वभाव मधुरता है। उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव है ज्ञान को न होने देना। वह ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार का है। कर्मों का जो अधिक-से-अधिक तथा कमसे-कम काल तक आत्मप्रदेशों के साथ अवस्थान माना गया है उसे स्थितिबन्ध जानना चाहिए। उक्त कर्मों में जो फल की उत्पत्ति है - हीनाधिक फल देने की शक्ति का आविर्भाव होता है उसका नाम अनभागबन्ध है। जीव और कर्म का जो एक-ढसरे के एक क्षेत्रावगाह स्वरूप से सम्बन्ध होता है उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँचों बन्ध के कारण हैं। अतत्त्वश्रद्धान को मिथ्यात्व, अत्यागरूप परिणामों को अविरति, निश्चय-व्यवहारचारित्र में असावधानरूप परिणामों को प्रमाद, क्रोध, मान, माया और लोभ रूप परिणामों को कषाय और मन, वचन, काय के निमित्त से आत्मा के चंचल रूप होने को योग कहते हैं। इस प्रकार बन्ध का स्वरूप है।' संवर तत्त्व - आस्रव का निरोध संवर है। जिनसे कर्म रुकें या कर्मों का रुकना संवर है। जैसे - जिस नगर के द्वार अच्छी तरह से बन्द हों तो वह नगर शत्रुओं को अगम्य होता है। उसी तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से कर ली है संवृत इन्द्रिय, कषाय व योग को जिसने ऐसी आत्मा के नवीन कर्मों का द्वार रुक जाना संवर है। संवररोकने अथवा सरक्षा को कहते हैं। जिन दारों से कर्मों का आस्रव होता था, उन दारों का निरोध कर देना संवर कहलाता है। आस्रव योग से होता है, अत: योग की निवृत्ति ही मूलत: संवर के पद पर प्रतिष्ठित हो सकती है। किन्तु मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को सर्वथा रोकना संभव नहीं है / शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आहार करना, मलमूत्र का विसर्जन करना, चलना-फिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। अत: जितने अंशों में मन, वचन और काय की क्रियाओं का निरोध है, उतने अंशों में गुप्ति होती है। मन, वचन और काय की अकुशल प्रवृत्तियों से . रक्षा करने रूप गुप्ति संवर का साक्षात् कारण है। निर्जरातत्त्व - जिसके द्वारा संसार के बीजभूत कर्म नष्ट किये जाते हैं उसे कर्म बन्ध से रहित हुए मुनियों ने निर्जरा कहा है। पूर्वबद्ध कर्मों का क्रमश: आत्मा से पृथक् होने का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है - सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा। इनमें प्रथम तो जो कर्म अभी उदय को प्राप्त नहीं हैं उनको तप के प्रभाव से उदयावली में प्रविष्ट कराके इच्छापूर्वक उनके फल को भोगना यह सकामनिर्जरा कही जाती है। यह तपस्वियों के हुआ करती है। और स्थिति के पूर्ण होने पर जब कर्म अपना फल देकर निर्जीण होते हैं, तब उसका नाम अकामनिर्जरा है। यह सभी प्राणियों के हुआ करती है। इसमें चूंकि 1. राजवार्तिक, 6/4. 2. द्रव्यसंग्रह, 32. 3. तत्त्वार्थसूत्र, 8/3.