________________ से रहित तथा श्रुतज्ञान के अवलम्बनयुक्त और सत्य रूप प्रामाणिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं। अपवाद (निन्दा) का स्थान, असन्मार्ग का उपदेशक, असत्य, कठोर, कानों से सुनते ही जो दूसरे के लिए कषाय उत्पन्न कर दे और जिससे पर का बुरा हो जाए, ऐसे वचन अशुभास्रव के कारण होते हैं। भले प्रकार गुप्त किये गए अर्थात् अपने वशीभूत किये हए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी शुभ कर्म का संचय करते हैं। निरन्तर आरम्भ करने वाले और जीवघात के व्यापारों से जीवों का शरीर (काययोग) पापकर्मों का संग्रह करता है अर्थात् काययोग से अशुभास्रव करता है।' मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्ध के कारण हैं। इन्हें आस्रवप्रत्यय भी कहते हैं। जिन भावों से कर्मों का आस्रव होता है उन्हें भावास्रव कहते हैं और कर्मद्रव्य का आना द्रव्यास्रव कहलाता है। पुदगलों में कर्मत्व पर्याय का विकास होना भी द्रव्यास्रव कहा जाता है। आत्मप्रदेशों तक उनका आना भी द्रव्यास्रव है। यद्यपि इन्हीं मिथ्यात्वादि भावों को भावबन्ध कहा है, परन्तु प्रथमक्षणभावी ये भाव चूंकि कर्मों : के आकर्षण में साक्षात्कारणभूत योगक्रिया में निमित्त होते हैं, अत: भावास्रव कहे जाते हैं और अग्रिमक्षणभावी भाव भावबन्ध हैं। भावासव जैसा तीव्र, मन्द और मध्यम होता है तज्जन्य आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द अर्थात् योगक्रिया से कर्म भी वैसे ही आते हैं और आत्मप्रदेशों से बँधते हैं। सर्वसाधारण जनों को तो कषायवश होने के कारण यह आस्रव आगामी बन्ध का कारण पड़ता है, इसलिए साम्परायिक आस्रव कहलाता है, परन्तु वीतरागी को वह इच्छा से निरपेक्ष कर्मवश होता है इसलिए आगामी बन्ध का कारण नहीं होता। वह अनन्तर क्षण में ही झड़ जाने से ईर्यापथ नाम पाता है। .. बन्धतत्त्व - कर्म प्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है। बन्ध दो प्रकार का है - भावबन्ध और द्रव्यबन्ध / जिन राग, देष और मोह आदि विकारी भावों से कर्म का बन्धन होता है उन भावों को भावबन्ध कहते हैं। कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध कहलाता है। द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध है। यह तो निश्चित है कि दो द्रव्यों का संयोग ही हो सकता है, तादात्म्य अर्थात् एकत्व नहीं। दो मिलकर एक दिख सकते हैं, परन्तु एक की सत्ता मिटकर एक ही शेष रह जाये, ऐसा नहीं होता। जब पुद्गलाणु परस्पर में बन्ध को प्राप्त होते हैं तो वे एक विशेष प्रकार के संयोग को ही प्राप्त करते हैं, जिसे बन्ध कहा जाता है। बन्ध प्रकृत्यादि के भेद से चार प्रकार का है - 1. प्रकृतिबन्ध, 2. प्रदेशबन्ध, 3. स्थितिबन्ध और 4. अनुभागबन्ध / ' 1. ज्ञानार्णव, 5/24. 2. वही, 6/1-2. 3. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 6/2/4-5 पृ. 506. 4. ज्ञानार्णव, 2/3-8. 5. तत्त्वार्थसूत्र, 6/4.