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________________ न्यूनाधिक रूप से ध्यान देता है, प्राणियों के व्यवहार का आधारभूत लक्षण है। जैसा कि किसी ने कहा - एक निर्दिष्ट क्षण में अनेक प्राप्त उत्तेजनाओं के प्रति समान रूप से प्रतिक्रिया करने की अपेक्षा प्राणी कुछ चुनी हुई उत्तेजनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है। एक उत्तेजना या उत्तेजनाओं के एक समूह पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और शेष की लगभग उपेक्षा कर देता है। दूसरे ही क्षण दूसरी उत्तेजना केन्द्र में आ जाती है। यहाँ ध्यान देने का तात्पर्य है - किसी वस्तु को देखने या किसी कार्य को करने के लिए तत्पर या तैयार होना। यह ध्यान यद्यपि क्षणिक ही होता है किन्तु जब वह एक ही काम में लगा रहता है तब उसमें पायी जाने वाली निरन्तरता का संचार उसे स्थिरता देता है। अरनेस्ट वूड के विचार योग के सिद्धान्तों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। उसके अनुसार जहाँ ध्यान प्रारम्भ होता है, वहाँ धारणा समाप्त हो जाती है।' धारणा का उद्देश्य होता है, मानसिक दृश्य के लघु क्षेत्र पर अवधान को केन्द्रित करना, जिससे कि उस विषय पर चैतन्य का प्रकाश अधिक तीव्र हो सके। धारणा में दृश्यक्षेत्र का संकुचन होता है / ध्यान में उसका विस्तार है। धारणा में स्पष्ट दृश्य अवलोकित होता है। ध्यान में उसे अधिक विस्तार, गहराई एवं ऊँचाइयों में वर्द्धित किया जाता है। अत: ध्यान की सफलता में धारणा की सफलता स्वयं निहित है / ध्यानमग्न-व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से सुप्त दिखलाई पड़ता है, किन्तु ध्यान और सुषुप्ति में बहुत अन्तर है। ध्यान आत्मरचना का एक महान् कार्य है। वस्तुत: जो कार्य अनवधान दशा में मन नहीं कर सकता है, वही मन उसी कार्य को अवधान-दशा में सरलता से कर सकता है। ध्यान मानवमात्र की आवश्यकता नहीं है, अपितु अनिवार्यता है। जिसके बिना वह अपने कार्य का सम्यक् रीति से सम्पादन नहीं कर सकता / प्रत्येक कार्य को ध्यानपूर्वक करने से ही कार्य सुगम और सरल होता हुआ सुफलवान् होने के साथ आनन्ददायी होता है। लोककल्याणकारी एवं जनमंगलकारी कार्यों को निष्पादित करने के लिए शुभ एवं समीचीन ध्यान की अपेक्षा होगी ही। जिसे सम्पन्न करने के लिए आचार्य शुभचन्द्र जो ज्ञानार्णव के रूप में जो योगदान दिया है वह अनुपमेय एवं अतुलनीय है। . 1. Concentration : A Practical Course. P. 93. 79
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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