________________ 11. न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यञ्च हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ। किन्तु सिद्ध स्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुई हैं।' 12. मैं अनन्तवीर्य, अनन्तविज्ञान, अनन्तदर्शन व अनन्त आनन्द स्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्मशत्रुओं को जड़मूल से न उखाईं। 13. बन्ध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं - मैं तो सहजशुद्ध ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ, निरअन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानन्द रूप सुखानुभूति ही है लक्षण जिसका ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हूँ। भरितावस्थावत् परिपूर्ण हूँ। रागद्वेष मोह, क्रोध, मान, माया व लोभ से तथा पंचेन्द्रियों के विषयों से, मन, वचन व काय के व्यापार से तथा भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म से रहित हूँ। ख्याति-पूजा-लाभ से देखे, सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षा रूप निदान तथा माया, मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हूँ।' 14. वीतराग भाव से युक्त होता हुआ योगी जो कुछ भी चिन्तवन करता है वही ध्यान है, इससे अन्य परम्परा से आगत ग्रन्थ का विस्तारमात्र है। ध्यान के भेद-प्रभेद - . मूलाचार आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में ध्यान केसामान्यसे ये चार भेद उपलब्ध होते हैं - आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल। इनमें प्रथम दो को संसार का कारण होने से अप्रशस्त और अन्तिम दो को परम्परया अथवा साक्षात् मुक्तिका कारण होने से प्रशस्त कहा गया है।' ध्यान के पूर्वोक्त आर्त आदि चार भेदों में से प्रत्येक के भी पृथक्-पृथक्वहाँ चार भेदों का निर्देश किया गया है। षट्खण्डागम की आचार्य वीरसेन दारा विरचित धवला टीका में यह एक विशेषता देखी जाती है कि वहाँ ध्यान के धर्म और शुक्ल इन दो भेदों का ही निर्देश किया गया है। आर्त और रौद्र इन दो भेदों को वहाँ सम्मिलित नहीं किया गया है / सम्भव है वहाँ तप का प्रकरण होने से आर्त्त वरौद्र इन अप्रशस्त ध्यानों की परिगणना नहीं की गई हो / किन्तु तप का प्रकरण होने पर भी मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र और औपपातिकसूत्र में उपर्युक्त आर्त्त और रौद्र को सम्मिलित कर ध्यान के पूर्वोक्त चार भेदों का ही उल्लेख किया गया है। हाँ, आचार्य हेमचन्द्र विरचित योगशास्त्र में अवश्य धवला के ही समान ध्यान के दो भेद निर्दिष्ट किये गए हैं - धर्म और शुक्ल। 1. वही, 31/12. ___2. ज्ञानार्णव, 31/13. 3. समयसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा 365. 4. ध्यानोपदेशकोष, 85. 5. मूलाचार, 5/197. तत्त्वार्थसूत्र, 9/28. ध्यानशतक, 5. आदि 6. धवला, पु. 13, पृ. 70.