________________ स्वयं वीरसेनाचार्य के शिष्य आचार्य जिनसेन ने भी सामान्य से ध्यान के प्रशस्त और अप्रशस्त इन दो भेदों का निर्देश करके उनमें अप्रशस्त को आर्त्त और रौद्र के भेद से दो प्रकार तथा प्रशस्त को धर्म और शुक्ल के भेद से दो प्रकार बतलाया है। इस प्रकार वहाँ ध्यान के उपर्युक्त चार भेदों का ही निर्देश किया गया है। इधर कुछ अर्वाचीन ध्यान साहित्य में ध्यान के पूर्वोक्त चार भेदों के अतिरिक्त पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये अन्य चार भेद भी उपलब्ध होते हैं। इनका स्रोत कहाँ है तथा वे उत्तरोत्तर किस प्रकार से विकास को प्राप्त हुए हैं, यह विचारणीय है। इन भेदों का निर्देश मूलाचार, भगवती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र व उसकी टीकाओं में तथा स्थानांग, समवांग, भगवतीसूत्र, ध्यानशतक, हरिवंशपुराण और आदिपुराण आदि ग्रन्थों में नहीं किया गया है। इन भेदों का उल्लेख हमें आचार्य देवसेन (10 वीं शती) विरचित भावसंग्रह में उपलब्ध होता है। जैसा कि आगे आप देखेंगे इनके नामों का उल्लेख योगीन्दु (सम्भवत: 6वीं शती) विरचित योगसार में भी किया गया है। इससे पूर्व के अन्य किसी ग्रन्थ में वह हमें देखने में नहीं आया। पद्मसिंह मुनि विरचित ज्ञानसार (वि. 1086) में अरहन्त की प्रधानता से पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ इन तीन की प्ररूपणा धर्मध्यान के प्रसंग में की गई है। वहाँ रूपातीत का निर्देश नहीं किया गया है। इनका कुछ संकेत तत्त्वानुशासन में भी प्राप्त होता है।' वहाँ ध्येय के नामादि चार भेदों के प्रसंग में द्रव्य ध्येय के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि ध्यान में चूंकि ध्याता के शरीर में स्थित ही ध्येय अर्थ का चिन्तन किया जाता है, इसीलिए कितने ही आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं। इसके पूर्व वहाँ नाम ध्येय के प्रसंग में जो अनेक मन्त्रों के जपने का विधान किया गया है। उससे पदस्थ ध्यान का संकेत मिलता है। इसी प्रकार स्थापना ध्येय में जिनेन्ढ प्रतिमाओं का तथा ढव्य-भाव ध्येय के प्रसंग में ज्ञानस्वरूप आत्मा और पाँच परमेष्ठियों के ध्यान का भी जो विधान किया गया है, उससे रूपस्थ और रूपातीत ध्यान भी सूचित होते हैं। यहाँ आर्त्त और रौद्र को दुर्ध्यान कहकर त्याज्य तथा धर्म्य और शुक्ल को समीचीन ध्यान बतलाकर उपादेय कहा गया है। यहाँ धर्म ध्यान के आज्ञा व अपायविचय आदि तथा शुक्ल ध्यान के पृथक्त्ववितर्कसवीचार आदि भेदों का कुछ भी निर्देश नहीं किया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव (11 वीं शती) विरचित द्रव्यसंग्रह में ध्यान के आर्त आदि किन्हीं भेदों का निर्देश नहीं किया गया है। पर वहाँ परमेष्ठीवाचक अनेक पदों केजपने और पाँच परमेष्ठियों के स्वरूप के विचार करने की जो प्रेरणा की गई है, उससे पूर्वोक्त पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का कुछ संकेत मिलता है। इसके टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि (11-12 1. आदिपुराण, 21/27-9. 2. भावसंग्रह, 619-22. 3. ज्ञानसार, 18. . 4. तत्त्वानुशासन, 134. 5. द्रव्यसंग्रह, गाथा 48. 76