________________ ध्याता की विचार सरणी पर भी दृष्टिपात् किया गया है। उसमें उसकी अपनी भावनाओं का प्रभाव ध्यान की एकाग्रता एवं स्थिरता पर होता है। इसलिए लगभग प्रत्येक जैनाचार्य ने ध्यान एवं व्रतों के अनुपालन के लिए निरन्तर भावनाओं का विधान किया है। जिन्हें निम्नतः देखा जा सकता है - ___1. ऊर्ध्व, मध्य और अध: इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है।' 2. मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए। / ____ 3. मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी-योगीन्द्रों के ज्ञान का विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री, धन आदि संयोगी भाव हैं वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं।' 4. मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानात्मक और अरूपी हूँ। मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है। मैं न पर-पदार्थों का हूँ और न पर-पदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञान स्वरूप अकेला ही हूँ। 5. न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ। 6. न मैं पर-पदार्थों का हूँ और न पर-पदार्थ मेरे हैं / यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है। 7. जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्य स्वभाव है वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिए।' 8. मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुल बन्धनों से बंधे हुए अनन्त काल पर्यन्त संसार रूप दुर्गम मार्ग में बिडम्बना रूप होकर विपरीताचरण किया। 9. यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है. जगत्श्रेष्ठ है. महान है. तो भी वर्तमान देखने मात्र को रमणीक और अन्त में नीरस ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ठगाया गया हूँ। 10. अनन्त चतुष्टयादि गुण समूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान हैं और अर्हत-सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है।1० 1. मोक्षपाहुड, 8. 2.रत्नकरण्डश्रावकाचार, 104. 3. इष्टोपदेश, 27. 4. समयसार, 38. 5. प्रवचनसार, 2/68. 6. तिलोयपण्णत्ती, 9/34. 7. वही, 9/46. 8. ज्ञानार्णव, 31/2. 9. वही, 31/8. 10. वही, 31/10.