________________ हमारा अपना ही प्रोजेक्शन है। ध्यान वह कला है, जिसमें ध्याता अपने को ही ध्येय बनाकर स्वयं उसका साक्षी बनता है। हमारी वृत्तियाँ ही हमारे ध्यान का आलम्बन होती हैं और उनके माध्यम से हम अपना ही दर्शन करते हैं। जैनदर्शन में आत्मभिन्न परमात्मा भी प्राथमिक भूमिका वाले साधक योगी के लिए ध्येय रूप स्वीकार किया जाता है। जैसा कि विषय विवेचन में आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है - निर्मल मति के धारक तीर्थंकर, गणधर आदि ने जो वस्तु उत्पाद आदि रूप लक्षण से सहित है उसे ध्येय (ध्यान के योग्य) बतलाया है।' वह वस्तु चेतन (जीव) और अचेतन (पुदगल आदि पाँच द्रव्य) के भेद से दो प्रकार की है। उसमें चेतन अमूर्त (रूप, रस, गन्ध व स्पर्श से रहित), परन्तु अचेतन क्रम से मूर्त और अमूर्त भी है। अर्थात् पुदगल द्रव्य मूर्त और शेष धर्म, अंधर्म, आकाश और काल अमूर्त हैं। जिसने शुद्ध ध्यान अर्थात् निर्मल शुक्लध्यान के द्वारा कर्म रुप कवच को नष्ट कर दिया है तथा जो समस्त पदार्थों का ज्ञाता दृष्टा है वह मुक्ति के द्वारा वरण किया जाने वाला देव (आप्त) माना गया है। जो चार घातिया कर्मों को नष्ट करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर चुका है वह सकल (शरीरसहित) परमात्मा तथा जो आठों ही कर्मों को नष्ट करके आठ गुणों को प्राप्त कर चुका है वह निकल (शरीर से रहित) परमात्मा है। वह भगवान् परमात्मा स्व-पर का कल्याण करने वाला है। . बुद्धिमान मुनियों को धर्मध्यान में चेतन और अचेतन लक्षणों से चिह्नित इन जीवादि पदार्थों का अपने-अपने स्वरूप के अनुसार ध्यान करना चाहिए। ___ आत्मा भाव द्रव्य है। उस द्रव्य की लहरें सदा ही उल्लसित रहती हैं। कोई क्षण भावरहित नहीं होता। यह अलग बात है कि उसका भावित होना विभाव रूप से हो या स्वभाव रूप से, मगर स्वयं उसका कभी अभाव नहीं होता है। अभाव होता है, मात्र आगन्तुक व संयोगी पर-पदार्थ व परभावों का ही और तभी उसका स्वभाव भी चमक उठता है। भाव का होना ही गुण है, शक्ति है और इसकी ही अभिव्यक्ति है। यह आत्मा वर्तमान में जैसा भी गुण रूप से है अर्थात् जिधर व जैसा रहती है। अभिव्यक्ति प्रवाह है- जिधर भी मोड़ो मोड़ दो। अत: ज्ञानी प्रकृत रूप से विभाव की तरफ बहने वाली अभिव्यक्ति को स्वभाव - ज्ञान की तरफ ही मोड़ते हैं। अत: उत्कृष्ट परम निर्मल अर्हत्-तीर्थंकर पुरुष-सम निर्मल आत्मा ही ध्येय है और उसका भाव ही अर्चनीय है। शुद्ध ज्ञायक व ज्ञान भाव ही अत: ध्येय भाव है। ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाएँ - जैन ध्यान-योग परम्परा में ध्यान के पूर्व एवं ध्यान के पश्चात् अवशिष्ट काल में 1. ज्ञानार्णव, 28/17. 13