SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरोवाक् गम्भीर प्रस्तुति जैन परम्परा में साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका समूह रूपी चतुर्विध संघ को तीर्थ कहा गया है। सभी तीर्थंकर सर्वप्रथम संसार सागर से संतरण में सहाय्य इस मंगल-तीर्थ की स्थापना करने के कारण तीर्थंकर कहलाते हैं तथा इसी तीर्थ के माध्यम से मोक्षमार्ग का प्रवर्तन करते हैं। चतुर्विध संघ में जहाँ आध्यात्मिक साधना को पूर्णरूपेण समर्पित सर्वविरत साधक-साधिका वर्ग है, वहीं उनकी साधना में सहायक एवं स्वयं भी अंशतः अध्यात्म साधक (देश विरत) श्रावक-श्राविका वर्ग भी है। स्पष्ट है कि गृहस्थ श्रावक-श्राविका के बिना साधक-साधिका वर्ग की साधना भी सम्भव नहीं हो सकती है। गृहस्थ के कर्तव्यों में स्वयं के लिए जीविकोपार्जन के साथ ही सामाजिक सारोकारों व अतिथि संविभाग व्रत के माध्यम से अर्थ व काम से असंपृक्त सर्वविरत साधक-साधिका वर्ग के जीवन यापनार्थ भोजन, वस्त्र, पात्र, आसन, वसति आदि से सहयोग करना भी अपेक्षित है। जैन परम्परा की भाँति बौद्ध परम्परा में भी उपासक-उपासिका वर्ग तथा वैदिक परम्परा की आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत गृहस्थाचार का महत्व है। गृहस्थ के अधिकांश कर्तव्य अर्थाराधित होने से मानव संस्कृति के अदि काल से ही सभी समाजों में आर्थिक चिन्तन का विकास हुआ है। प्राचीन भारतीय वांग्मय में आर्थिक चिन्तन का विकास-क्रम देखा जा सकता है, जिसमें कौटिलीय अर्थशास्त्र प्रतिनिधि ग्रन्थ है। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि वर्तमान विश्व परिदृश्य में पाश्चात्य आर्थिक चिन्तन इतना सर्वव्यापी है कि भारतीय आर्थिक चिन्तन को उसकी अपेक्षित प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है। उसमें भी यदि भारतीय अर्थ-चिन्तन की दृष्टि से देखा जाय तो जैन अर्थ-चिन्तन तो लगभग मूक ही है। इसकी एक प्रमुख वजह है इसका प्राकृत भाषा में निगूढ़ प्राचीन आगम ग्रन्थों में प्रच्छन्न होना तथा वर्तमान काल के आध्यात्मोन्मुख आगमवेत्ताओं की अर्थ-चिन्तन के प्रति उदासीनता। इन सबके बावजूद अर्थ की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। 'अर्थेण स्वप्नाः सिद्धाः' के अनुसार अर्थ से ही जीवनयापन सहित सभी सांसारिक संकल्प (xxi)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy