________________ कुमारपालचरितम् 35 17. करणाभासहुँ मणु उत्तारहु, करणाभासेंहिँ मुक्खु न कसु हि वि / आसणु सयणु वि सव्वहों करणेंहिँ, करणहुँ मुक्खु तो निरु सव्वस्सु वि // 17 // 18. विसयहँ पर-वस मच्छहु मूढा बन्धुहुँ सहिहुँ वि घवलि छूढा / दुहुँ ससि-सूरिहिँ मणु संचारहु बन्धुहँ सहिहँ व वढ विणु सारहु // 18 // गिरिहें वि आणिउ पाणिउ पिज्जइ तरुहें वि निवडिउ फलु भक्खिज्जइ / गिरिहुँ व तरुहुँ व पडिअउ अच्छइ विसयहिँ तह वि विराउ न गच्छइ / / 19 / / 20. जइ हिम-गिरिहि चडेविणु निवडइ अह पयाय-तरुहि वि इक्क-मणु / निक्कइअवै विणु समयाचारॅण विणु मण-सुद्धिएँ लहइ न सिवु जणु / / 20 / /