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________________ समारोपण करना। असद्भूत व्यवहारनय के तीन भेद हैं - स्वजात्यसद्भूत, विजात्यसद्भूत और स्वजातिविजात्यसद्भूत। जो नय स्वजातीय द्रव्यादिक में स्वजातीय द्रव्यादि के सम्बन्ध से होने वाले धर्म का आरोपण करता है वह स्वजात्यसद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। जैसे परमाणु बहुपदेशी है। यहाँ यह कहना चाहते हैं कि परमाणु वर्तमान अवस्था में भले ही एकप्रदेशी हो, परन्तु उसमें अन्य परमाणुओं के सम्बन्ध से वह बहुप्रदेशी हो सकता अब द्वितीय भेद का स्वरूप कहते हैं - जो नय दूसरी जाति के द्रव्यादिक में दूसरी जाति के द्रव्यादिक की स्थापना करता है उसे विजात्यसद्भूत व्यवहार नय कहते हैं। जैसे मतिज्ञान मूर्तिक है, क्योंकि वह मूर्त्तद्रव्य से उत्पन्न हुआ है। अतः उसको भी मूर्त कहा गया है यहाँ पर मतिज्ञान नामक आत्मगुण में पौद्गलिक मूर्तत्वगुण कहा गया है, तथा एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर जीवस्वरूप हैं ऐसा कथन करता है। जो नय स्वजातीय और विजातीय वस्तु को प्रधान करके कहता है वह स्वजातिविजात्यसद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। जैसे - जीव-अजीव दोनों ज्ञेय पदार्थों को ज्ञान कहना। यहाँ पर ज्ञानगुण की अपेक्षा जीव स्वजातीय एवं अजीव विजातीय है। अब इसके बाद उपचरितासद्भूत व्यवहार नय का भेदों सहित स्वरूप कथन करते हैं - असद्भूत व्यवहार ही उपचार है, जो नय उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। जैसे 'पुत्रादि मेरे हैं' यहाँ पर उपचार से भी उपचार किया गया है। पहले तो उपचार से 'शरीर मेरा है' और उसमें भी उपचार कि 'पुत्रादि मेरे हैं', इस प्रकार समझना चाहिए। इसकी ये विशेषता है कि ये संश्लेष सम्बन्ध से रहित होता है। उपचारितासदर्भत व्यवहार नय के तीन भेद हैं - 1. स्वजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय 2. विजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय 3. स्वजातिविजात्यपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय बृहद् द्रव्य संग्रह गाथा 3 टीका, नयचक्र गा. 70 आ. प. सू. 88 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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