________________ द्वितीय परिच्छेद : उपनय का स्वरूप एवं भेद नयों का स्वरूप समझने के पश्चात् अब उपनय का स्वरूप एवं उसके भेदों को लक्षण सहित प्रदर्शित करते हैं उपनय की परिभाषा लिखते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - 'नयानां समीपा उपनयः' अर्थात् जो नय के समीप होते हैं। नय न होते हुए भी नय के समान होते हैं उन्हें उपनय कहते हैं। * उपनय के तीन भेद हैं-सद्भूत व्यवहारनय, असद्भूत व्यवहारनय, उपचरितासद्भूत व्यवहारनय। इनमें भी सद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद, असद्भूत व्यवहारनय और उपचरितासद्भूत व्यवहारनय के तीन-तीन भेद हैं।' संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा गुण और गुणी में अभेद होने पर भी भेद का उपचार करना सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। सद्भूत के दो भेद हैं-शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय और अशुद्ध सदभूत व्यवहारनय। शुद्धगुण और शुद्धगुणी में तथा शुद्धपर्याय और शुद्धपर्यायी में जो नय भेद करता. . है वह शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे - सिद्ध जीव एवं सिद्धपर्याय में भेद कथन करना। इसी प्रकार जो नय अशुद्धगुण और अशुद्धगुणी में तथा अशुद्ध पर्याय और अशुद्ध पर्यायी में भेद करने का कथन करता है वह अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। जो नय भेद होने पर भी अभेद का उपचार करता है वह असद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। जो नय अन्य द्रव्य के गुणों को अन्य द्रव्य में आरोपित करता है उसे असद्भूत व्यवहार नय कहते हैं। जैसे-पुद्गलादि में जो स्वभाव है उसका जीवादि में सब्भूयमसब्भूयं उवयरियं चेव दुविह सब्भूयं। तिवह पि असब्भूयं उवयरियं जाण तिविहं पि।। नयचक्र 15 वृहद्रव्यसंग्रह टीका गाथा 3 नयचक्र गा. 50 एवं आलापपद्धति सू. 207 88 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org