________________ अब क्रमप्राप्त प्रथम भेद के स्वरूप को बताते हुए आचार्य कहते हैं कि - जो जय उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है वह स्वजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय कहलाता है। जैसे पुत्र - स्त्री आदि मेरे हैं। यहाँ यह कहना चाहते हैं कि पुत्र, स्त्री आदि में वह अपने आप का स्वामित्व या अपनी सम्पदा समझता है। अब द्वितीय भेद को प्रदर्शित करते हैं - जो नय परजाति गत पदार्थों को अपना कहता है वह विजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय कहलाता है। जैसे - 'सोना, आभरण, वस्त्र आदि मेरे हैं' इस प्रकार यहाँ सोना आदि अपनी जाति के द्रव्य नहीं हैं, आत्मरूप नहीं हैं। अत: असद्भूत तथा लोकव्यवहार में वास्तविक स्वामित्व भी पाया जाता है, ऐसा समझना चाहिए। अब तीसरे भेद के स्वरूप पर अपने विचार व्यक्त करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो नय चेतन और अचेतन मिश्र पदार्थ को अपना बतलाता है वह स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे 'देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं। यहाँ देशादिक में सचेतन और अचेतन दोनों ही प्रकार के पदार्थों का समावेश हो जाता नयों और उपनयों के विषय नयों और उपनयों के विषय को बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि-द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्य, पर्यायार्थिक नय का विषय पर्याय है। सद्भुत व्यवहार के दो विषय, असद्भूत व्यवहार के नौ और उपचरित के तीन विषय हैं। उनमें गुण-गुणी में, पर्याय-पर्यायी में, स्वभाव-स्वभावी में, कारक-कारकी में भेद करना सद्भुत व्यवहारनय का विषय है। असद्भुत व्यवहारनय के जो विषय हैं उनको देखते हैं वे निम्न हैं - 1. द्रव्य में द्रव्य का उपचार करना, जैसे - शरीर को ही जीव कहना। पृथ्वी आदि पुद्गल में एकेन्द्रिय जीव का उपचार। 2. पर्याय में पर्याय का उपचार करना, जैसे किसी के प्रतिबिम्ब को देखकर उसको उस चित्र के जैसा बतलाना। 3. गुण में गुण का उपचार करना, जैसे मतिज्ञान मूर्तिक है, क्योंकि कर्मजनित है ऐसा नयचक्र गाथा 16 90 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org