________________ का कारण नहीं होता है। अर्थात् आत्मा कर्म से उत्पन्न नहीं होता और ना ही किसी कर्म नष्ट होने से होता है। यहाँ जीव के अनेक स्वभावों के मध्य में ज्ञान को ही परमभाव स्वीकार किया है, जो शुद्ध और अशुद्ध के उपचार से रहित है। पर्यायार्थिक नय के स्वरूप को हम पहले कह आये हैं। अब आगे पर्यायार्थिक नय के जो 6 भेदों का वर्णन आचार्य देवसेन स्वामी ने किया है उनके स्वरूप को प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं। उनमें जो प्रथम भेद है - अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय उसके स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो नय अनादि और अनिधन पदार्थों को ग्रहण करता है वह अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् जो पदार्थ अकृत्रिम अर्थात् जो किसी के भी द्वारा निर्मित नहीं किये गये और ना ही किसी के द्वारा नष्ट होते हैं ऐसे अकृत्रिम पुद्गलों की पर्यायों को जो ग्रहण करता है वह अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है। वे अकृत्रिम पदार्थ जैसे मेरु, कुलाचल, अकृत्रिम जिनबिम्ब एवं जिनालय, भरतादि क्षेत्र, लवणादिसमुद्र, स्वर्ग, नरक एवं वलयादि ये सब अनादिनित्य हैं। 21 इस विषय में आचार्य कहते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि सभी पर्यायें विनाश को प्राप्त हों हीं यदि ऐसा माना जाय तो एकान्तवाद का प्रसंग आने की आशंका उत्पन्न हो सकती है। ऐसा भी कोई नियम नहीं है कि जो वस्तु नष्ट नहीं होती है वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पाये जाते हैं उसे द्रव्य माना जाता है। अब जो पर्यायार्थिक नय का द्वितीय भेद है उसके स्वरूप को बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो नय सादि अर्थात् आदि से सहित है, कहने का तात्पर्य है कि जिसका प्रारम्भ है और नित्य अर्थात् सदैव विद्यमान रहने वाला ऐसे दोनों विशेषताओं अर्थात् सादि एवं नित्य पदार्थ को जानता है वह सादिनित्यपर्यायार्थिक नय कहलाता है।' इस नय का दृष्टान्त आचार्यों ने सिद्धपर्याय को कहा है, क्योंकि यहाँ कर्मों के नाश से प्राप्त हुई है और यह आदि से सहित है तथा कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होगी। अतः अनादिनिधनपर्यायार्थिको यथा पुद्गलपर्यायो नित्यो मेर्वादिः। आलापपद्धति 57, नयचक्र गाथा 27 धवला पुस्तक 7, पृ. 178 नयचक्र गाथा 28, आ. प. 59 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org