________________ इस विषय में आचार्य देवसेन स्वामी का अभिप्राय है कि स्वभाव युक्त भी द्रव्य के गणयुक्त भी और पर्याययुक्त भी ऐसा कहा जाता है। इसलिये द्रव्यत्व कारण कहीं पर भी जाति नहीं आती तथापि जो नय स्वभाव विभाव रूप से अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव इत्यादि अनेक स्वभावों को एक द्रव्य से प्राप्त करके भिन्न-भिन्न नामों की व्यवस्था करता है वह अन्वय द्रव्यार्थिक है। इसी नय का स्वरूप शोलापुर से प्रकाशित संस्कृत नयचक्र के श्लोक 4 और 7 में वर्णित है - जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाया है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है। जैसे कड़े आदि पर्यायों में तथा पीतत्व आदि गुणों में अन्वय रूप से रहने वाला स्वर्ण। अथवा मनुष्य, देव आदि नाना पर्यायों में यह जीव है, यह जीव है ऐसा अन्वय द्रव्यार्थिक नय का विषय है। अब आगे आठवें भेद के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि जो नय स्वद्रव्यादि चतुष्टय अर्थात् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्थित द्रव्य को जानता है वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय कहलाता है। इसी तथ्य को आचार्य देवसेन स्वामी ने नयचक्र में भी वर्णित किया है। यहाँ आचार्य महाराज कहना चाहते हैं कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा न करके जो निज द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से द्रव्य को अस्तिरूप मानता है वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। इसी प्रकार इसके विपरीत स्वभाव वाले नौवें भेद परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय का स्वरूप बताते हुए लिखा है - पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य नास्तिरूप है ऐसा पर द्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। अर्थात् यहाँ आचार्य श्री का तात्पर्य यह है कि पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जो नय वस्तु में नास्तित्व देखता है वही परद्रव्यादिग्राहक नय है। आगे द्रव्यार्थिक नय के अन्तिम प्रभेद को कहते हैं। परम भाव को ग्रहण कर जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचार से रहित द्रव्य को जानता है वह परमभावग्राही द्रव्यार्थिक नय है।' अर्थात् यहाँ आचार्य कहना चाहते हैं कि - आत्मा संसारी और मुक्त इन दो पर्यायों का आधार है, फिर भी आत्मा कर्मों के बन्ध और मोक्ष स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति। आ. प. 54 आ. प. 55 आ. प.56 82 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org