________________ यह नित्य हो गई। ऐसी सादि नित्य पर्याय को ग्रहण करता है वह नय है सादिनित्य पर्यायार्थिक। आचार्य क्षायिकभाव की अपेक्षा से कहते हैं कि इस जीव को जो पर्याय प्राप्त होती है वह इस नय का विषय बनेगी। वह क्षायिक ज्ञान हो या क्षायिकदर्शन अथवा क्षायिक सम्यक्त्व हो या क्षायिक दानादि, ये सभी पर्यायें इस नय के अन्तर्गत परिलक्षित होती हैं। __ अब आगे पर्यायार्थिक नय के तृतीय भेद का स्वरूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जो नय सत्ता अर्थात् ध्रौव्य को गौण (अप्रधान) करके उत्पाद और व्यय को ही ग्रहण करता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहलाता है। यहाँ जो वस्तु का स्वभाव ध्रौव्यपना नित्य है उसको गौण करके विनाशशील पर्याय जो उत्पाद और व्यय रूप है उसको प्रधान करके कथन करता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। जैसे-पर्याय प्रतिसमय विनाशशील है। चतुर्थ भेद का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि जो नय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से सहित पर्याय को ग्रहण करता है वह सत्ता सापेक्ष स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहलाता है। यहाँ पर जो सत्ता सापेक्ष स्वभाव शब्द दिया है उसका अभिप्राय यह है कि यह सत्ता अर्थात् ध्रौव्य की अपेक्षा से सहित उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली पर्याय को ग्रहण करता है। इस नय का विषय ध्रौव्य भी होने से इस नय को अशुद्ध पर्यायार्थिक कहा गया है, क्योंकि शुद्धपर्यायार्थिक नय का विषय ध्रौव्य नहीं है। इसमें उत्पाद और व्यय के साथ ध्रौव्य की अपेक्षा से भी सहित है, इसलिये इसमें सत्तासापेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है। जो नय कर्मबन्धन की अपेक्षा से रहित संसारी जीवों को सिद्धों के समान शुद्ध वर्णित करता है वह नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहलाता है। परन्तु आचार्य देवसेन स्वामी ने अपने ही द्वारा विरचित नयचक्र ग्रन्थ में इसी नय का. नाम अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय कहा है। आलाप पद्धति और नयचक्र में भेद होने का क्या कारण है जीवा एक क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः। पञ्चास्तिकाय 53 टीका नयचक्र गा. 29, आलापपद्धति 60 आ. प. 61 आ. प. 62 84 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org