________________ व्यवस्थित तरीके से निबद्ध किया है कि उसमें अब पूर्वापर दोष प्रकट नहीं हो सकता। उनमें सर्वप्रथम यतिवृषभाचार्य ने नय का स्वरूप बताते हए कहा है - "णाणं होदि यमाणं णयो वि णादुस्सहिदियभावत्थो अर्थात सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के अभिप्राय (हृदयस्थ भाव) को नय कहा गया है। आगम में कहते हैं-'प्रगृह्य प्रमाणत: परणति विशेषादर्थावधारणं नय:” नय प्रमाण द्वारा परिगृहीत अर्थात् ज्ञात वस्तु के एक अंश को अपना विषय बनाता है। सर्वार्थसिद्धि में ही आगे लिखते हैं कि - 'वस्त्वन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्य प्रापणप्रवण प्रयोगे नयः'। अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु में बिना विरोध के हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की निश्चयता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग नय है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि - साध्य का साधर्म्य दृष्टान्त के साथ साधर्म्य के द्वारा और वैधर्म्य दृष्टान्त के साथ वैधर्म्य द्वारा बिना किसी विरोध के जो स्यादवाद के विषयभूत अर्थ के विशेष (नित्यत्व आदि) का व्यञ्जक (प्रकाशक) होता है वह नय कहलाता है। अर्थात् उनका अभिप्राय है कि किसी प्रकार का कोई विरोध व्यक्त न करते हुए जो स्याद्वाद के द्वारा ग्रहण किये गये विशेष तत्त्वों को प्रकाशित करता है वही नय है। 'प्रमाणैकदेशाश्च नया:' प्रमाण के एकदेश को नय कहते हैं। जो विषय प्रमाण के द्वारा ग्रहण किया गया है उसको विशेष रूप से जानते हुए जो उसके एकदेश को ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं। आचार्य अकलंक स्वामी लिखते हैं कि - प्रमाण द्वारा प्रकाशित अर्थ (पदार्थ) को जो विशेष रूप से प्ररूपित करता है वह नय है। आगे नय का ही स्वरूप बताते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं 'प्रमाणपरिगृहीतार्थंकदेशवस्त्वध्यवसायो नय:6 अर्थात प्रमाण द्वारा परिगृहीत वस्तु के अंश (एकदेश) को तिलोयपण्णति 1/83 सर्वार्थसिद्धि 1/6 सर्वार्थसिद्धि 1/33 सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः। स्याद्वादप्रविभक्तार्थ विशेषव्यञ्जको नयः।। 106 तत्त्वार्थवार्तिक 1/33/1 'प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेषप्ररूपको नयः' धवला पु. 1, सूत्र 1, पृ. 83 74 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org