________________ जानना या कहना नय है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी आचार्य अकलंक स्वामी की ही परिभाषा को और संपोषित किया है। नय के उसी स्वरूप को और अधिक पुष्ट करके उसमें कुछ अपेक्षा को योजित / करते हुए आचार्य विद्यानन्द स्वामी अष्टसहस्री में लिखते हैं कि - अनेक धर्मात्मक पदार्थ के ज्ञान को प्रमाण और उसके धर्मान्तर सापेक्ष एक अंश के ज्ञान को नय कहते हैं। धर्मान्तरों का निराकरण करके वस्तु के एक ही धर्म का कथन करने वाले को दुर्नय कहते हैं। यहाँ आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने नय के स्वरूप को अपेक्षा सहित करके तो व्यक्त किया ही है साथ ही साथ यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो समस्त अपेक्षाओं को ध्यान में न रखते हुए एक ही धर्म को नित्य मानकर कथन करने वाला है वह दुर्नय है। नय कभी नहीं हो सकता, क्योंकि नय सदैव सापेक्ष होने से पूर्णरूप से अनेकान्तात्मक होता हुआ प्रमाणित स्वीकार किया गया है। नय सदैव एक अपेक्षा से कथन करते हुए भी प्रमाण स्वरूप स्वीकार किया जाता है, क्योंकि वह एक पक्ष को ही नहीं कहता है बल्कि वह अपेक्षा से कहता है, इसीलिये नय सर्वदा प्रामाणिक माना गया है। इसी क्रम में आचार्य विद्यानन्दि स्वामी नय का और स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं कि - स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत्। स्वार्थैकदेशनिर्णीति लक्षणो हि नयः स्मृतः॥ अर्थात् स्व और अर्थ का निश्चायक होने से नय प्रमाण ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्व और अर्थ के एकदेश को जानना नय का लक्षण है। नय और प्रमाण एक न होकर दोनों एक दूसरे से पृथक्-पृथक् स्वरूप वाले हैं, इसलिये इनको एक मानना भूल ही है। इसी सन्दर्भ में आगे लिखा है-सामान्य की अपेक्षा से नय एक ही है। स्याद्वाद श्रुतज्ञान के द्वारा गृहीत अर्थ के नित्यत्व आदि धर्मविशेषों का कथन अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधी:। नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः।। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकान्तर्गतं नयविवरणम् 4 75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org