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________________ अर्थात् समुद्र की एक तरंग न समुद्र होती है और न असमुद्र किन्तु वह समुद्र का एक अंश है, उसी प्रकार नय न प्रमाण है न अप्रमाण है अपितु प्रमाण का एक अंश है। इसी विषय को पुष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्दि स्वामी कहते हैं कि प्रमाण यदि अंग है तो नय उपांग है। प्रमाण यदि समुद्र है तो नय तरंग है। प्रमाण यदि सूर्य है तो नय रश्मिजाल है। यदि प्रमाण वृक्ष है तो नय उसकी शाखायें हैं, प्रमाण यदि हाथ है तो नय अंगुलियाँ हैं। यदि प्रमाण जुलाहे का ताना है तो नय बाना है और प्रमाण व्यापक है तो नय व्याप्य है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रमाण नय में समाविष्ट है। बल्कि यथार्थ यही है कि नय प्रमाण में समाविष्ट है। इसका कारण यह है कि प्रमाण का सम्बन्ध पञ्चज्ञान से है, जबकि नय केवल श्रुतज्ञान से सम्बद्ध है। अतः नय श्रुतज्ञानरूप प्रमाण का अंश विशेष है। नय की निरुक्तिपरक व्याख्या _ 'णीन् प्रापणे' धातु में अच् प्रत्यय लगने पर 'नय' पद सिद्ध होता है। इसका अर्थ है ले जाना, अर्थात् प्राप्त करना और बोध करना या कराना। 'नयन्ति गमयन्ति प्राप्नुवन्ति वस्तु ये ते नया:" जो वस्तु को ले जाते हैं उसका सम्यक् बोध कराते हैं वह नय कहलाते हैं। नय का स्वरूप नय के स्वरूप में भी समय के अनुसार परिवर्तन आता रहा है और आचार्यों ने उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया। परिभाषा के शब्दों में परिवर्तन होने पर भी तथ्यात्मक परिवर्तन नहीं आया बल्कि परिभाषा और अधिक परिमार्जित एवं सुव्यवस्थित प्रतीत होने लगी। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे अन्य मतावलम्बियों के मस्तिष्क में तर्क भी बढ़ते चले गये। उनके जटिल तर्कों को ध्यान में रखकर आचार्यों ने परिभाषा में थोड़ा सा परिवर्तन करके अथवा उसमें कुछ विशेष शब्दों का संयोजन करके अपने मत का मण्डन और परमत का खण्डन सुनियोजित तरीके से किया जिसका परिणाम हम सबको वर्तमान में देखने को मिलता है। आचार्यों ने परिभाषा को इतना श्लोकवार्तिक नयविवरण 16 उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. 138 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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