________________ पञ्चम परिच्छेद : पर्याय का स्वरूप एवं भेद द्रव्य गुण और पर्याय वाला होता है तो द्रव्य के गुणों का वर्णन हो चुका है अब पर्याय के स्वरूप को कहते हैं - गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं।' आचार्य उमास्वामी लिखते हैं कि - उसका होना अर्थात् प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है।' यहाँ आचार्य यह कहना चाहते हैं कि गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। आचार्य अकलंक स्वामी लिखते हैं कि जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है। इसी प्रकार अन्य अनेक आचार्यों ने पर्याय के स्वरूप का वर्णन किया है। उन सबके द्वारा बताये गये स्वरूप में एक सामान्य बात यह है कि परिणमन शब्द का प्रयोग प्रत्येक आचार्य ने किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि परिणमन का नाम ही पर्याय है। पञ्चाध्यायी पूर्वार्द्ध में अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद और भंग इन सबको एक ही अर्थ का वाचक माना है। जो स्वभाव और विभाव रूप से सदैव परिणमन करती रहती है वह पर्याय कहलाती है। अथवा जो द्रव्य में क्रम से एक के बाद एक आती जाती है उसे पर्याय कहते हैं। पर्याय के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं-1. अर्थ पर्याय 2. व्यञ्जन पर्याय। आलापपद्धति, गुणविकारः पर्याय: त. सू. 5/42 स. सि. 5/38 टीका 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org