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________________ व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और अनेक प्रकार का चारित्र, ये सब संवर के मुख्य हेतु आचार्यों ने स्वीकार किये हैं।' ANSE निर्जरा तत्त्व - अब इसके बाद निर्जरा तत्त्व का स्वरूप बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - पहले के संचित हुए कर्मों का सड़ना, छूटना अर्थात् आत्मा से उनका सम्बन्ध हट जाना उसको निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो भेद हैं एक विपाकजा . और दूसरी अविपाकजा।' - जो कर्म समय के अनुसार अपनी स्थिति के पूर्ण होने पर अपना फल देकर खिर जाते हैं उसको विपाकजा निर्जरा कहते हैं। जैसे वृक्ष पर लगा आम का फल अपने समय आने पर पककर डाली से नीचे गिर जाता है इसी प्रकार विपाकजा निर्जरा होती है। परन्तु समयानुसार कर्म उदय में आकर फल देते हैं और जीव उस फल में राग-द्वेष आदि परिणाम कर लेता है जिस कारण वह उसी समय नवीन कर्मबन्ध कर लेता है। ऐसी ही श्रृंखला चलती रहती है और संसार का कभी भी अन्त नहीं आता। विपाकजा निर्जरा को आचार्यों ने 'गजस्नानवत' कहा है, क्योंकि हाथी नदी आदि में स्नान करके बाहर फिर से धूल उठाकर अपने ऊपर डाल लेता है। . जो कर्म बिना फल दिये तपश्चरणादि के द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं वह अविपाकजा निर्जरा कहलाती है। जैसे-आम के वृक्ष से कच्चा फल तोड़कर पालादि के द्वारा उसको समय से पहले ही पका लिया जाता है उसी प्रकार अविपाकजा निर्जरा है। वास्तव में इसी निर्जरा से ही इस जीव का कल्याण हो सकता है अन्यथा कल्याण की कोई दूसरी विधि नहीं है। सामान्यतया कर्मों का एकदेश झड़ना निर्जरा कहलाता है और कर्मों की संवरपूर्वक निर्जरा होती है तभी इस जीव का कल्याण सम्भव है नहीं तो एकतरफ से कर्म आते रहें और दूसरी तरफ से निर्जरा करते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं होगा। 7. मोक्ष तत्त्व - अब मोक्ष तत्त्व का स्वरूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि आत्मा में से समस्त कर्मों का नाश हो जाना मोक्ष कहलाता है। आचार्य उमास्वामी महाराज मोक्ष बृ. द्र. सं. गाथा 35, त. सू. 9/2 भावसंग्रह गाथा 344,345, बृ. द्र. सं. गाथा 36 46 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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