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________________ वर्णन किया है - कर्मप्रकृतियों के कारणभूत प्रतिसमय योगविशेष से सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेशों में सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं उसे प्रदेश बन्ध कहते हैं।' जो पुद्गल परमाणु कर्मरूप से ग्रहण किये जाते हैं वे ज्ञानावरणादि आठ अथवा मात (आय को छोड़कर) प्रकार से परिणमन करते हैं। उनका ग्रहण संसारावस्था में सदा होता रहता है। ग्रहण का मुख्य कारण योग है, वे सूक्ष्म होते हैं। जिस क्षेत्र में आत्मा स्थित होता है उसी क्षेत्र के कर्म परमाणुओं का ग्रहण होता है अन्य का नहीं। उसमें भी स्थित कर्मपरमाणुओं का ही ग्रहण होता है अन्य का नहीं। ग्रहण किये गये कर्मपरमाण आत्मा के सब प्रदेशों में स्थित रहते हैं और जो अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण संख्या वाले, घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र की अवगाहना वाले एक, दो, तीन, चार, संख्यात और असंख्यात समय की स्थिति वाले तथा पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध, चार स्पर्श वाले वे आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों के योग्य कर्मस्कन्ध होते हैं। ऐसा आशय आचार्य महाराज का है। 5. संवर तत्त्व - अब इसके पश्चात् संवर तत्त्व का स्वरूप बताते हैं जिन मन, वचन, काय की क्रियाओं से कर्मों का आस्रव होता है, उन्हीं मन, वचन और काय की क्रियाओं को रोक देने से कर्मों का आना रुक जाता है। इसी को संवर तत्त्व कहते हैं। आस्रव का एकदम विपरीत तत्त्व संवर तत्त्व होता है। आस्रव में कर्म आते हैं और संवर में कर्म रुकते हैं यही दोनों में महान् अन्तर है। संवर को भी दो प्रकार से जाना जा सकता है - एक भाव संवर और एक द्रव्य संवर। जिन परिणामों से कर्मों का आत्मा में आना रुक जाना होता है वह भाव संवर कहलाता है एवं उन परिणामों से कर्म पुदगल वर्गणाओं का आत्मा में आना रुक जाना वही द्रव्य संवर कहलाता है। जिस जीव के शुभ-अशुभ रूप संकल्प-विकल्प नष्ट हो जाते हैं, समस्त इन्द्रियों के व्यापार (क्रिया-कलाप) नष्ट हो जाते हैं और आत्मा का शुद्ध भाव प्रकट हो जाता है तब शुभ और अशुभ कर्मों का संवर हो जाता है। त. सू. 8/24 45 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Interational
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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