________________ स ARE आचार्य देवसेन स्वामी भी लिखते हैं कि पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका, कार बक्रगति के तीन भेद हैं। कार्मण शरीर से युक्त जीव एक, दो या तीन मोड / अपनी-अपनी लेश्याओं के निमित्त से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरकादि गतियों में निकाल से उपार्जित किये गये कर्मों के उदय से जैसा शरीर धारण करना है वैसा शरीर चौथे समय में धारण कर ही लेता है। यह जीव जितने मोड़ लेता है उतने ही समय तक यह जीव अनाहारक होता है। अधिक से अधिक यह जीव विग्रह गति में तीन समय तक अनाहारक रह सकता है, उसके बाद चतुर्थ समय में नियमपूर्वक जन्म ले ही लेता है। संसारी जीव ऋजगति से भी गमन करता है, एक मोड़े वाली गति, दो मोड़ वाली गति और अधिक से अधिक तीन मोड वाली गति ही कर सकता है. इसी कारण से चतुर्थ समय में जन्म ले ही लेता है। इसमें ऐसा समझना चाहिये कि तीन समय तक अनाहारक रह सकता है, क्योंकि जन्म से एक समय पहले यह जीव नियम से आहारक हो ही जाता है। आगे आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि यह संसारी जीव इस प्रकार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक, अपर्याप्तक आदि चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ "अनेक प्रकार के सुख और दुःख भोगता रहता है।' आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने इसी विषय को बृहद्रव्यसंग्रह में उल्लिखित किया है पञ्चेन्द्रिय के संज्ञी और असंज्ञी दो, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय के स्थूल (बादर) और सूक्ष्म दो भेद इस प्रकार ये सातों पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से चौदह प्रकार के जीवसमास हो जाते हैं। इन्हीं में भेद-प्रभेद करने पर और भी पाणिविमुत्ता लंगलि बंकगई होइ तह य पुण तइया। कम्माण काय जुत्तो दो तण्णि य कुणइ बंकाइ।। तहए समए गिण्हइ चिरकयकम्मोदएण सो देह। सुरणर णारदयाणं तिरियाणं चेव लेसवसो।। भा. सं. 300-301 एक द्वौ त्रीन्वानाहारकः। त. सू. 2/30 सुहं दुक्खं भुंजतो हिंडदि जोणीसु सयसहस्सेसु। एयदियं वियलिंदिय सयलिंदिय पज्ज पज्जत्तो।।302।। समणा अमणा णेया पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे। बायरसुहुमेइंदिय सव्वे पज्जत्त इदरा य।। बृ. द्र. सं. गा. 12 39 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org