________________ आगे कहते हैं सब्भावे णुड्ढगई विदिसं परिहरिय गइ चउक्केण। गच्छेइ कम्मजुत्तो सुद्धो पुण रिज्जुगइ जाइ॥' अर्थात् यह जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता है परन्तु जो कर्मसहित जीव हैं वे विग्रहगति में चारों विदिशाओं को छोड़कर छहों दिशाओं में गमन करते हैं तथा जो . शद्धजीव हैं वे ऋजुगति से ही ऊर्ध्वगमन करते हैं। इसी सम्बन्ध में कुछ लोगों की ये हठधर्मिता है कि जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है इसलिये यह जीव जब भी मरण करता है तो सबसे पहले वह ऊपर जाता है पश्चात् अपने आयु कर्म के अनुसार अपनी अगली पर्याय को प्राप्त करने को गमन करता है तो इसके उत्तर में पं. रतनचन्द्र जी ने 'रत्नचन्द्र मुख्तार - व्यक्तित्व कृतित्व' में एक शंका के समाधान में लिखा है कि यदि ऐसा माना जायेगा तो इसमें दोष उत्पन्न होता है, क्योंकि नियम सभी जीवों में लागू होगा तब फिर जो जीव ऊपर अन्तिम तनुवातवलय से मरण करेगा तो वह ऊर्ध्वगमन कैसे करेगा, क्योंकि उसके ऊपर धर्मद्रव्य का अभाव है इसी कारण से ही तो सिद्ध भगवान भी आगे गमन नहीं कर पाते जबकि उनमें अनन्त, . शक्ति का समावेश है। इसलिये यह नियम बाधित होता है। ऊर्ध्व गमन करना शद्धजीव का स्वभाव है न कि संसारी जीव का। हाँ संसारी जीव को अपनी वर्तमान अवस्था से ठीक ऊपर स्वर्ग के विमान में जन्म लेना होगा तो वह मरण करके सीधा ऋजुगति से गमन करके वहाँ पहँच जाता है। यदि मरणोपरान्त ऊपर गमन करके पश्चात गन्तव्य तक पहुँचेगा ऐसा माना जाय तो संसारी जीव के ऋजुगति का तो अभाव हो जायेगा जो कि हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा इष्ट नहीं है। आचार्य उमास्वामी लिखते हैं कि संसारी जीव की बिना मोड़े वाली और मोड़े वाली गति होती हैं और शुद्ध जीव की बिना मोड़े वाली गति है।' अधिक से अधिक तीन मोड़े वाली गति ही हो सकती है क्योंकि चतुर्थ समय में नियम से यह जीव जन्म ले ही लेता है। भा. सं. 299 विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः। त. सू. 2/28 अविग्रहा जीवस्य। त. सू. 2/27 38 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org