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________________ / जो कत्ता सो भुत्ता ववहार गुणेण होइ कम्मस्स। ण हु णिच्छएण भणिओ कत्ता भोत्ता य कम्माणं।296।। अर्थात् यह जीव व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है और यही आत्मा अपने आप किये गये उन कर्मों के फल का भोक्ता है। निश्चयनय से न तो वह कर्मों का कर्ता है. न ही भोक्ता वह तो शुद्धस्वभावों का कर्ता और भोक्ता है। आत्मा के कर्ता और भोक्ता के विषय में आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने अलग-अलग गाथाओं में प्रदर्शित किया है। उन्होंने कहा कि-'यह जीव व्यवहारनय से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, निश्चयनय से चेतनकर्मों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्धभावों का ही कर्ता है एवं व्यवहारनय की अपेक्षा से पद्गल कर्मों का फल सुख-दुःख रूप भोक्ता है तथा निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा के चेतनभावों का ही भोक्ता है। इस तरह से दो गाथाओं में आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने कर्ता और भोक्तापने को प्रदर्शित किया है। जीव के स्वरूप में और विशिष्टता बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि सुहमो अमुत्तिवंता वण्णगंधाइफासपरिहीणो। पुग्लमज्झिगओ वि य णय मिल्लइ णिययसब्भाव।।' अर्थात् यह आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, अमूर्त है, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श इन पुद्गल के गुणों से रहित है। यद्यपि पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्मों से मिला हुआ है तथापि अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है। इसी विषय को आचार्य नेमिचन्द्रस्वामी ने भी वर्णित किया है-निश्चयनय से जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं हैं, इसलिये वह अमूर्तिक है और इनसे बंधा होने से व्यवहारनय से यह जीव मुर्तिक है।' पुग्गल कम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धणया शुद्धभावाणं।।8।। ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।।9।। द्र. सं. भावसंग्रह गा. 298 वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो।।7।। 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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