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________________ अर्थात् जो स्वगत तत्त्व है, उसके दो भेद हैं-सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प स्वतत्त्व वह है जो आस्रव सहित है और आस्रव एवं संकल्प रहित अविकल्प स्वतत्त्व है। ग्रन्थकर्ता ने यहाँ आस्रव की अपेक्षा स्वगत तत्त्व आत्मा के दो भेद प्ररूपित किये हैं। उनका आशय यह है कि साम्परायिक आस्रव से सहित सविकल्प स्वतत्त्व और ईर्यापथ आस्रव से सहित अविकल्प स्वतत्त्व कहलाता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि विकल्प क्या कहलाता है? तो उसका समाधान यह है कि मन में अनेक प्रकार की जो कल्पनायें उठती हैं, उन्हें विकल्प कहते हैं, क्योंकि मन की चञ्चलता ही सर्व विकल्पों का कारण है। मन की चपलता से सहित होना सविकल्प और रहित होना अविकल्प होना है। आचार्य देवसेन स्वामी का तात्पर्य यह है कि जहाँ तक कषाय का सद्भाव है, वहाँ तक सविकल्प अवस्था है। यद्यपि सप्तम गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक आत्मानुभूति की अपेक्षा निर्विकल्प स्वतत्त्व है, क्योंकि वहाँ अन्य किसी पर-पदार्थ का विकल्प नहीं होता है, तथापि अकषाय की अवस्था नहीं हैं। अत: संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने से वास्तविक अवस्था तो नहीं हो पाती। आचार्य वीरसेन स्वामी ने कषाय के मन्द उदय रहने के कारण 10वें गुणस्थान तक धर्म्यध्यान स्वीकार किया है। अकषाय अवस्था 11वें गुणस्थान से शुक्ल ध्यान की निर्विकल्प अवस्था स्वीकार की है। यह निर्विकल्प अवस्था कषाय उपशमन की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान से तथा कषाय के क्षय की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान से ग्रहण करना चाहिये। इसी कारण से इनके सार्थक नाम उपशान्त मोह और क्षीण मोह हैं। जहाँ मिथ्यात्वादि का उपशमन अथवा अभाव हो जाने से कर्मों का संवर हो जाता है। संवर होने से पूर्वोपार्जित कर्म की निर्जरा होती है और नवीन कर्मास्रव रुक जाता है। इससे परम चैतन्यरूप परमात्मा पद अरिहंत और सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हो जाती है। अब आगे आचार्य आत्मा के शुद्धभाव का निरूपण करते हुए कहते हैं कि समणे णिच्चलभूए णठे सव्वे वियप्पसंदोहे। थक्को सुद्धसहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो॥' तत्त्वसार गा.7 396 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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