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________________ अर्थात् अपने मन के निश्चलीभूत होने पर, समस्त विकल्पों के समूह नष्ट होने पर विकल्प रहित, निर्विकल्प, निश्चल, नित्य, शुद्ध स्वभाव स्थिर रहता है। जो निश्चय से शुद्धभाव है, वह आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप कहा गया है अथवा उसको शुद्ध चेतना रूप कहा जाय तो भी उचित होगा। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - रागादिक भावों से रहित चैतन्यभूत परम पारिणामिक भाव ही जीव का वास्तविक स्वभाव है। शरीर के वेश को साधु बनाने मात्र से शुद्धात्म स्वभाव का प्रकटीकरण नहीं हो सकता है और बिना वेश धारण किए भी शुद्धस्वभाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। उसको प्राप्त करने के लिये शरीर को संभालने के साथ-साथ अन्तरंगपरिणामों का संभालना परम आवश्यक है। साधक जब तक राग-द्वेष रूप बाधक, परिणामों में रत रहेगा, तब तक शुद्धात्मा के आनन्द रूपी सागर में गोता नहीं लगा पायेगा। यदि साधक समाज, देश एवं राष्ट्र के प्रपञ्चों में कर्तृत्व दृष्टि रूप परिणत होकर चल रहा है तो वह आत्माभिमुख नहीं हो सकेगा। पन्थ, सम्प्रदाय, संघ, जाति, स्थान, क्षेत्र, नगर एवं प्रदेश आदि में भेदभाव की दृष्टि जिनमें दृष्टिगत होती है, तो वह साधक कदापि नहीं हो सकता है। मुमुक्षु पुरुष तो जाति, सम्प्रदाय एवं पंथ आदि से कहीं ऊँचे होते हैं और उनकी दृष्टि में प्राणीमात्र का कल्याण निहित होता है और निज कल्याण की भावना अन्दर से प्रस्फुटित होती है, उन्हें संसार के समस्त . परद्रव्यों के विषय में चिन्तन करने का समय ही नहीं होता है। 397 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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