________________ परगत तत्त्व स्वरूप पञ्चपरमेष्ठी के स्वरूप का वर्णन हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं। अतः पुनरावृत्ति करना योग्य नहीं है। इन पञ्चपरमेष्ठी के चितवन करने से किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है, तो आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - तेसिं अक्खर रूवं भवियमणुस्साणं झायमाणाणं। बज्झइ पुण्णं बहुसो परंपराए हवे मोक्खो॥' अर्थात् उन पञ्चपरमेष्ठियों के वाचक अक्षर रूप मंत्रों का ध्यान करने वाले भव्य जीव बहुत पुण्य का अर्जन करते हैं और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ आचार्य देवसेन स्वामी ने मुख्यतया पदस्थ ध्यान की ओर संकेत किया है। इस ध्यान के अन्तर्गत मन्त्राक्षरों अथवा बीजाक्षरों को ध्यान करने से ध्याने वाले साधक का चित्त शान्त रहता है और अज्ञान का नाश करके अनन्तज्ञान का धारी केवली भगवान् बन जाता है। अतः मंत्रों का ध्यान मुमुक्षु को अवश्य करना चाहिये। पदस्थ ध्यान का स्वरूप वर्णन पहले ही कर आये हैं फिर भी प्रसंगवशात् सामान्य लक्षण प्रस्तुत करते हैं कि एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पञ्चपरमेष्ठी वाचक पवित्र मंत्रों का उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। ' पञ्चपरमेष्ठी वाचक मंत्र एक अक्षर का भी हो सकता है और कई अक्षरों का भी हो सकता है, परन्तु ध्यान अवश्य करना चाहिये। सुभौम चक्रवर्ती की तरह कोई कितना भी भ्रमित करने का प्रस्ताव रखे तो भी अपने मन को इन परमेष्ठियों में ही लगाये रखना है, क्योंकि यही संसार रूपी सागर से पार लगाने में समर्थ हैं। जिनागम का उपदेश है कि कितनी भी विपत्ति उपस्थित हों फिर भी इनकी आराधना नहीं छोड़ना चाहिए। अब आगे आचार्य स्वगत तत्त्व का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि. . जं पुणु सगयं तच्चं सवियप्पं हवइ तह य अवियप्पं। पण मग . सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं 2. तत्त्वसार गा. 4 तत्त्वसार गा.5 395 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org