________________ कि हण्डावसर्पिणी से केवल पंचमकाल ग्रहण करना है या अन्य काल भी, क्या चौथे काल में भी अतदाकार स्थापना नहीं होती थी? यहाँ असद्भाव स्थापना के अन्तर्गत अक्षत, पुष्प, कौंडी आदि में 'यह जिनेन्द्र भगवान् हैं' ऐसी कल्पना स्थापना का निषेध किया है। कृत्रिम सिंहासन पर अथवा पाण्डुकशिला पर तदाकार मूर्ति की स्थापना का निषेध नहीं किया है। पूजन करते समय जो आह्वानन, स्थापन, सन्निधीकरण होता है उसमें स्थापन का आशय यह है कि जिनेन्द्र भगवान् की मन में स्थापना पूर्वक पुष्प क्षेपण करना। उन पुष्पों में जिनेन्द्र की स्थापना नहीं की जाती है। इस स्थापना में तदाकार मूर्ति में उसी के गुणों की स्थापना की जाती है अथवा उसे हृदय में स्थापना पूर्वक पुष्पों का क्षेपण किया जाता है। - अब आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि सद्भाव स्थापना पूजा में पाँच अधिकार जानना चाहिये जो इस प्रकार है - कारापरक, इन्द्र, प्रतिमा, प्रतिष्ठाविधि और प्रतिष्ठाफल।' कारापरक - प्रतिमा को बनाकर उसकी प्रत्येक स्थिति में सुरक्षा कर लाने एवं प्रतिष्ठा करवाने वाला जो है वह कारापरक अथवा यजमान भी कहलाता है। वह भाग्यवान वात्सल्य, प्रभावना, क्षमा, सत्य और मार्दवगुण से संयुक्त, जिनेन्द्रदेव, शास्त्र और गुरु की भक्ति करने वाला प्रतिष्ठाशास्त्र में कारापरक कहा गया है। इन्द्र - जो देश, कुल और जाति में शुद्ध हो, निरूपम अंग का धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रतिष्ठा लक्षण विधि का जानकार हो, श्रावक के गुणों से युक्त हो, श्रावकाचार में स्थिर बुद्धि हो, इसप्रकार के गुणवाला व्यक्ति जिनशासन में अर्थात् जैनशास्त्रों में प्रतिष्ठाचार्य अथवा इन्द्र कहा गया है। शास्त्रज्ञानरहित, विवाद एवं प्रलाप करने वाला, अत्यन्त लोभी, अशान्तस्वभाव. वाला, परम्पराहीन, अर्थ को नहीं जानने वाला कभी भी प्रतिष्ठाचार्य बनने के योग्य नहीं हो सकता। वसु. श्रा. गा. 386 वही गा. 387 वही गा. 388-389 353 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org