SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्विध संघ की आत्मसाधना निर्विघ्न हो, इस उद्देश्य से जिनेन्द्र देव के अनुसार जैनाचार्यों ने चार प्रकार के दान की प्ररूपणा की है। आचार्य वसुनन्दि महाराज ने दानों के अन्तर्गत एक दान करुणादान भी स्वीकार किया है। उनका कहना है कि - अतिवृद्ध, बालक, मूक, अन्धा, बधिर, परदेशी, रोगी और दरिद्री जीवों को करुणादान दे रहा हूँ, ऐसा समझकर यथायोग्य आहारादि दान देना चाहिये।' दिगम्बराचार्यों ने सम्यग्दृष्टि श्रावक को कुपात्रों अथवा अपात्रों में दान देने का सीधा निषेध नहीं किया है, अपितु दिशादर्शन देते हुए कहा है कि कुपात्रों अथवा अपात्रों को स्वविवेक और करुणाबुद्धि से दान देना चाहिये। करुणाबुद्धि से विवेकपूर्वक दान देने में दोष नहीं, अपितु दोष है उन्हें पात्र समझकर दान देने में। अपात्र में पात्र बुद्धि हो तब सम्यक्त्व में दोष आता है। करुणादान में भी विवेक की आवश्यकता होती है कि पात्र योग्य या अयोग्य, उसे आवश्यकता है या नहीं, आदि का ध्यान रखना चाहिये। इन चारों दानों में कौन-कौन प्रसिद्ध हुआ है यह बताते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि श्रीषेण राजा आहारदान में, वृषभसेना औषधिदान में, कोण्डेश ग्वाला उपकरणदान में और सकर अभयदान में प्रसिद्ध हए हैं।' आचार्य पूज्यपाद स्वामी तीन प्रकार के दान स्वीकार करते हैं - आहारदान, अभयदान और ज्ञानदाना' यहाँ आचार्य ने आहारदान में ही औषधिदान को गर्भित कर लिया है। महापुराणकार भी दान के चार भेद स्वीकार करते हैं परन्तु ये चारों भेद इन भेदों से भिन्न हैं - दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्तिा' ___ अब दयादत्ति आदि के लक्षणों को प्ररूपित करते हुए आचार्य जिनसेन स्वामी लिखते हैं कि - अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन और काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को पण्डित लोग दयादत्ति दान मानते हैं।' व. श्रा. 235 र. क. श्रा. 118 स. सि. 6/24 म. पु. 38/35, चा. सा. 43/6 म. पु. 38/36 327 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy