________________ महातपस्वी मुनियों के लिये सत्कार पूर्वक पडगाहन करके जो आहारादि दिया जाता है उसे पात्रदत्ति कहा जाता है। क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान है तथा जो संसार समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिये कन्या, हस्ति, घोड़ा, रथ, रत्न, पृथ्वी और सुवर्ण आदि दान देना अथवा मध्यम पात्र के लिये समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समानदत्ति कहलाता है। अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिये पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करने को अन्वयदत्ति अथवा सकलदत्ति कहते हैं। सब कुछ दान कर देने से इसका नाम सकलदत्ति है और यह दान अपने वंश में किया जाता है इसलिये इसे अन्वयदत्ति कहते हैं। इसके बिना मोक्षमार्ग में चलना दुष्कर है। इसीलिये इस सर्वस्व त्याग को मोक्षार्थियों के लिये हितकर कहा है। प्रथमादि प्रतिमाओं में की जाने वाली आत्मा की आराधना के द्वारा जिनका मोहरूपी सिंह छिन्न-भिन्न तो हो गया है, किन्तु फिर भी जिन्हें उसके उठ खड़ा होने की आशंका है उन गृहस्थों के त्याग का धीरे-धीरे बाह्य और अन्तरंग परिग्रह को छोड़ने का यह क्रम है, क्योंकि शक्ति के अनुसार किया गया इष्ट अर्थ की साधना का उपक्रम इष्ट अर्थ का साधक होता है। आचार्य सोमदेव स्वामी ने तीन प्रकार के दान भी बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं - राजस, तामस, और सात्विक। जो दान अपनी प्रसिद्धि की भावना से भी कभी-कभी ही दिया जाता है और वह भी तब दिया जाता है जब किसी के द्वारा दिये दान का फल देख लिया जाता है वह राजस दान है।' पात्र और अपात्र को समान मानकर या पात्र को भी अपात्र के समान मानकर बिना किसी आदर सम्मान और स्तुति के नौकर-चाकरों के द्वारा जो दान दिया जाता है वह तामस दान है। जो दान स्वयं पात्र को देखकर श्रद्धापूर्वक दिया जाता है वह दान सात्विक है।' म. पु. 38/37 वही 38/38-39 वही 38/40 सा. ध. 7/27-28 सो. उपा. 828 वही 829 वही 830 328 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org