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________________ इन चारों दानों की विशेषता बताते हुए आचार्यों का आशय यह है कि भूख सबसे बड़ा कष्ट है। वह शरीर की कांति को नष्ट कर देती है, बुद्धि को भ्रष्ट करती है, व्रत-संयम और तप में व्यवधान उत्पन्न करती है, आवश्यक कर्मों के परिपालन में बाधा उत्पन्न करती है, उस भूख के शमन के लिये प्रासुक, वातावरणानुकूल साधना का वर्धन करने वाला आहार भक्ति पूर्वक मुनियों के लिये आहार दान देना ही चाहिये। मुनियों के निवास हेतु प्रासुक वसतिका अथवा आवास प्रदान करने से अभयदान का अतिशय पुण्य प्राप्त होता ही है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ मनुष्य के लिये इष्ट हैं। वे बिना जीवन के संभव नहीं हैं। अतः दूसरों के जीवन की रक्षा करना ही अभयदान है। 'दया धर्म का मूल है' सम्पूर्ण दानों में जीवन दान सर्वश्रेष्ठ दान है। अतः अभयदान देना अत्यधिक जरुरी ही नहीं अनिवार्य भी है। असातावेदनीय कर्म के उदय से तथा वीर्यान्तराय कर्म के उदय से शरीर में रोगों की उत्पत्ति होती है। ये रोग शरीर को अस्वस्थ और मन को अप्रसन्न बनाते हैं। रोगों के कारण साधना में कुछ शिथिलता आती है। साधक के रोग-ग्रस्त हो जाने पर रोग के निवारण के लिये शुद्ध औषधि देना तथा समुचित परिचर्या करना ही औषधदान कहलाता है। इस संसार में तीनों कालों में प्राणी का नि:स्वार्थ हितकारी बन्धु ज्ञान ही है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य तिर्यञ्च के समान माना गया है। ज्ञान से ही इस लोक और परलोक सम्बन्धी सम्पूर्ण हेय-उपादेयता का बोध होता है। भेदविज्ञान होने का कारण भी ज्ञान ही है। ज्ञान से श्रद्धान और चारित्र में दृढ़ता आती है, मन एवं इन्द्रिय विषयों से विरक्तता आती है, चित्त पवित्र होता है। अत: ज्ञानप्राप्ति के लिये जिनवाणी भेंट करना, विद्यालय खुलवा देना, पाठशाला खुलवाना, पढ़ाने के लिये योग्य शिक्षक रखवाना, अपने ज्ञान को न छुपाते हुए किसी के भी पूछने पर आते हुए विषय को तुरन्त बता देना आदि करना सब ज्ञान दान ही है। सामान्य से देखा जाय तो आहारदान, औषधिदान और अभयदान तो कुछ समय के लिये ही उपकारी होते हैं, परन्तु ज्ञानदान इस लोक में तो उपकारी होता ही है परलोक में भी कई भवों का उपकारी होता है। अतः ज्ञान-दान सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है। 326 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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