________________ के लिये उद्यम करता है और मरण चाहता है। इसी का समाधान करते हुए आचार्य ने कहा है कि आत्मघात करने वाला विशेष राग-द्वेष भावों से अपने आपको मारने की चेष्टा करता है और संक्लेश भावों से मरता है। जबकि सल्लेखनाधारी मरण समय उपस्थित होने पर कषायों को कृश कर अपने परिणामों को विशुद्ध करता है, सभी से क्षमा माँगता है, सर्वपरिग्रह एवं कुटुम्बीजनों से ममत्व छोड़कर शुद्धात्म स्वरूप के चिन्तन में मग्न हो जाता है। क्या आत्मघाती ऐसे निर्मल विशुद्ध परिणाम बना सकेगा? . सल्लेखना में तो न राग है न द्वेष है, न इष्टानिष्ट बुद्धि है, न कोई शल्य है और न ही कोई संक्लेश परिणाम है। प्रत्युत निरपेक्ष, वीतराग और विशुद्ध परिणाम हैं। यह तो साम्यभाव से अन्तिम विदाई है। यह अकाल मरण भी नहीं है, अपितु समता का जीवन जीना है। जब तक जियें, निर्मल भावों के साथ जियें, यही वास्तव में सही रूप से अन्तिम यात्रा की पूर्व सज्जा है। सफल जीवन यात्रा के उद्देश्य को लेकर साधक अपनी साधना के फल के उद्देश्य को लेकर साधक अपनी साधना के फल के रूप में सल्लेखना स्वीकार करता है। इसका फल निश्चित रूप से परिनिर्वाण अर्थात् मोक्ष सुख प्राप्त करना है। .. क्षमाभावपूर्वक स्वभाव में लीन हो जाना ही सल्लेखना है। जैनदर्शन से भिन्न अन्य चिन्तकों ने भी सल्लेखना को उत्तम और आवश्यक साधना के रूप में देखा है। यहाँ यह विशेष द्रष्टव्य है कि जब राजाराममोहनराय ने सती प्रथा पर रोग लागई थी, तब सल्लेखना उस काल में भी होती थी। उन्होंने इस मामले में कोई भी विरोध नहीं किया। वह जानते थे कि इसमें सती प्रथा जैसी प्रक्रिया नहीं है, जिस पर कोई प्रश्न खड़ा किया जाय। इसमें आवश्यकता यह है कि हम सत्य को समझकर अपनी बुद्धि और विवेक का विकास करें। किसी की भी धार्मिक भावना को नष्ट करने की कुचेष्टा भारतीय संविधान के विपरीत है। अतः सल्लेखना जैसे पावन-परिणामों को आत्महत्या का रूप देना अल्पज्ञता का प्रकटीकरण ही कहा जायेगा, क्योंकि आत्महत्या तो कषायजन्य परिणति का परिणाम है। हमारी यही भावना हो कि जो अन्तिम लक्ष्य है वह यह है कि जीवन के अन्तिम पड़ाव में प्रभु की आराधना और आत्मसाधना के साथ सल्लेखना पूर्वक मरण हो। यही श्रावक के व्रतपालन का फल है। 321 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org