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________________ चतुर्थ परिच्छेद : दान का स्वरूप, भेद एवं फल भारतवर्ष में दर्शन और उससे सम्बन्धित शास्त्रों की लोकप्रियता जितनी है, उतनी शायद किसी अन्य देश में नहीं है। पाश्चात्य देशों में ये विद्वज्जनों के मनोविनोद का साधन मात्र हैं। जिस प्रकार अन्य विषयों के अध्ययन में वे मनमानी कल्पना किया करते हैं, उसी प्रकार इस महत्त्वपूर्ण विषय की भी स्थिति है, परन्तु भारतवर्ष में दर्शन तथा धर्म का, तत्त्वज्ञान तथा भारतीय जीवन का गहरा सम्बन्ध है। क्लेशमय संसार से आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति करने के लिये ही भारत में दर्शन का आविर्भाव हुआ है। . इस संसार में आकर जीवन-संग्राम में अपने आपको विजयी बनाना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। अन्य जीवित प्राणियों के समान मनुष्य भी अपने को जीवित बनाये रखने के लिये निरन्तर संघर्ष करता रहता है और कभी उसे दबाने वाले प्रतिपक्षी शत्रुओं से संघर्ष करता है। भेद बस इतना ही रहता है कि अन्य जीव बिना विचार किये केवल स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण जीवन-संग्राम में लगा रहता है, परन्तु मनुष्य विवेक-प्रधान जीव होने के कारण प्रत्येक अनुष्ठान के अवसर पर अपनी विचार शक्ति का उपयोग करता है। सम्पूर्ण मानवीय कार्य-कलापों की आधारशिला मानवीय विचार हैं। हम दर्शन को अपने जीवन से पथक नहीं कर सकते। पशुओं से आहार, भय, मैथन और परिग्रह के विषय में समानता होने पर भी मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है - धर्म अर्थात् धारण करने वाला वस्तु समुदाय, उसका विवेक, उसका विचार या दर्शन। आध्यात्मिक तथ्यों या सिद्धान्तों का चिन्तन या विचार करना दर्शन है और इन सिद्धान्तों के अनुरूप मोक्षप्राप्ति के लिये आचार का पालन किया जाता है वह धर्म है। दर्शन और धर्म एक दूसरे के पूरक हैं, यदि ऐसा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसा विचार वैसा आचार। बिना धार्मिक आचार के द्वारा कार्यान्वित हुए दर्शन की स्थिति निष्फल है और बिना दार्शनिक विचार के द्वारा परिपष्ट हए धर्म की सत्ता अप्रतिष्ठित है। इन दोनों का सामञ्जस्य आचार्य देवसेन स्वामी के द्वारा रचित ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। यह आचार्य देवसेन स्वामी की विशेषता ही है कि जिन्होंने दर्शन के साथ-साथ धर्म का सामञ्जस्य प्रस्तुत किया है। जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन दर्शन में किया जाता है, उन्हीं का पालन करना अर्थात् साधना करना धर्म कहलाता है। बिना साधना अर्थात् आचार के 322 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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